वाराणसी
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उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब के यौमे पैदाइश की तारीख है –

वाराणसी:- उनकी शहनाई, भारत रत्न, ठेठ बनारसी अंदाज सब कुछ मिलकर जो माहौल बनाता रहा वो आप किसी काशी वासी से पूछिए।  

उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खाँ का जन्‍म 21 मार्च को बिहार के डुमराँव में एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में हुआ था। हालाँकि, उनके जन्‍म के वर्ष के बारे में भी मतभेद है। दरअसल, उस समय बहुत कम लोगों को ही अपना जन्मदिन याद रखने की जरुरत होती तो थोड़ा बहुत आगे पीछे हो सकता है। 

 

कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्‍म 1913 में हुआ था और कुछ 1916 मानते हैं। उनका बचपन का नाम कमरुद्दीन खान था। कहते हैं वे ईद मनाने मामू के घर बनारस गए थे और उसी के बाद बनारस उनकी कर्मस्थली बन गई। 

 

उनके मामू और गुरु अली बख्श साहब बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे और वहीं रियाज भी करते थे। यहीं पर उन्‍होंने बिस्मिल्‍लाह खाँ को शहनाई सिखानी शुरू की थी। 

 

आज आपको एक वाकया बताता हूँ। बिस्मिल्‍लाह खाँ साहब अपने एक दिलचस्‍प सपने के बारे में बताते थे, जो इसी मंदिर में उनके रियाज करने से जुड़ा है। एक किताब में उनकी जुबानी ये किस्सा है। इसके मुताबिक, उनके मामू मंदिर में रियाज करने के लिए कहते थे और कहा था कि अगर यहाँ कुछ हो, तो किसी को बताना मत।

 

बिस्मिल्लाह साहब की जबानी ही यह बात बाहर आई थी, “एक रात मुझे कुछ महक आई। महक बढ़ती गई। मैं आँख बंद करके रियाज कर रहा था। मेरी आँख खुली, तो देखा हाथ में कमंडल लेकर ‘बाबा’ खड़े हैं। दरवाजा अंदर से बंद था, तो किसी के कमरे में आने का मतलब ही नहीं था। मैं रुक गया। उन्होंने (बाबा) कहा बेटा बजाओ, लेकिन मैं पसीना-पसीना था। वे हँसे, बोले खूब बजाओ… खूब मौज करो और गायब हो गए। मुझे लगा कि कोई फकीर घुस आया होगा, लेकिन आसपास सब खाली था।” 

 

बिस्मिल्लाह साहब घर गए। उन्‍होंने अपने मामू को इसके बारे में बताया। उनके मुताबिक, मामू समझ गए थे कि क्या हुआ है। यह वाकया बताने के बाद बिस्मिल्‍लाह साहब को थप्पड़ मिला, क्योंकि मामू ने कुछ भी होने पर किसी को बताने से मना किया था। यहाँ एक बात जो नहीं जानते हैं उन्हें बता दूँ कि बनारस में ‘बाबा’ अर्थात काशी विश्‍वनाथ जी को कहते हैं।

 

पता नहीं ये कहानी कितनी सही है। बनारस में ऐसी बहुत सी कहानियाँ है जो कभी आप घाटों पर तबियत से बैठे रहे तो कोई न कोई सुनाने वाला मिल ही जाएगा। 

 

खैर, बिस्मिल्लाह साहब की इस कहानी की सच्चाई भी सिर्फ वही जानते होंगे, लेकिन जिस संस्कृति को वो मानते थे, उसे बताने का काम यह किस्सा करता है। शिया मुस्लिम होने के बावजूद वे हमेशा माँ सरस्वती को पूजते थे। उनका मानना था कि वे जो कुछ हैं, वो माँ सरस्वती की कृपा है।

अब तक आप समझ ही गए होंगे कि यूँ ही नहीं बनारस अलग और अलहदा है, बना हुआ रस है। पर हाँ इसके स्वाद के लिए आना होगा आपको इस शहर में थोड़ी फुर्सत से, तब आनंद आएगा इस शहर का, क्योंकि यह वह रस है जो धीरे-धीरे घुलता है और गर घुल गया तो आप गए काम से, कहीं और मन ही नहीं लगेगा।

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