नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का अपने माँ श्रीमती प्रभावती देवी को लिखा एक पत्र कटक से –

‘रामायण’ का वर्णन करते हुए मात्र 15-16 साल की अवस्था में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने माँ श्रीमती प्रभावती देवी को कटक से एक पत्र लिखें थे जिसे यहां दे रहा हूं —
श्री श्री मातेश्वरी सहाय
कटक,
रविवार
आदरणीया मां,
भारत भूमि भगवान को बहुत प्यारी है। प्रत्येक युग में उन्होंने इस महान भूमि पर त्राता के रूप में जन्म लिया है, जिससे जन-जन को प्रकाश मिल सके, धरती पाप के बोझ से मुक्त हो और प्रत्येक भारतीय के हृदय में सत्य और धर्म प्रतिष्ठित हो सके। भगवान अनेक देशों में मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैं, लेकिन किसी अन्य देश में उन्होंने इतनी बार अवतार नहीं लिया जितनी बार भारत में लिया है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह भारत हमारी माता, भगवान की प्रिय भूमि है। मां! तुम स्वयं देखो कि इस देश में तुम जो कुछ भी चाहो मिल सकता है। अधिकतम ताप वाला ग्रीष्म, अधिकतम शीत वाली शरद ऋतु, अधिकतम वर्षा और फिर हृदय में अपार प्रसन्नता का संचार करने वाले हेमंत और वसंत-तुम जो कुछ भी चाहो। दक्षिण में हमें गोदावरी नदी मिलती है, जिसका निर्मल जल उसके तटों का स्पर्श करता हुआ समुद्र की ओर लगातार बहता रहता है—ऐसी है वह पावन नदी। उसे देखकर और उसके विषय में सोचकर हमारी आंखों के सामने रामायण में वर्णित पंचवटी का दृश्य नाच उठता है—हमारे दृष्टि- पथ पर राम, लक्ष्मण और सीता आते हैं, जो बड़ी प्रसन्नता से गोदावरी के रम्य तट पर अपना समय बिता रहे हैं और जिन्होंने अपने राज्य और वैभव को बनवास के लिए त्याग दिया; कोई भी सांसारिक चिंता या कष्ट जिनके संतुष्ट मुखमंडल को प्रभावित नहीं कर सका। ऐसी यह त्रिमूर्ति प्रकृति और परमेश्वर की पूजा में अपार प्रसन्नता के साथ अपना समय बिता रही है। इधर हम हैं कि हमारा समय व्यर्थ की सांसारिक चिताओं में नष्ट हो रहा है। कहां है वह प्रसन्नता? कहां है वह शांति जिसके लिए हम बेचैन हैं? शांति तो तभी मिल सकती है जब हम भगवान के ध्यान में डूबे और भगवान की पूजा करें। अगर इस धरती पर किसी भी प्रकार से शांति आनी है तो वह इसी तरह आएगी कि प्रत्येक घर में भगवान का भजन कीर्तन गूंजे। जब मैं उत्तर दिशा की ओर देखता हूं तो मेरे दृष्टिपथ पर एक और भी अधिक भव्य दृश्य आता है— मुझे वह पवित्र गंगा दिखाई देती है, जो न जाने कब से बह ही है, और जिसकी कल्पनामात्र से मेरे सामने रामायण का एक और दृश्य झलक आता है। मैं देखता हूं एक वन में ध्यानमग्न वाल्मीकि की कुटी को, और फिर उसे महर्षि के मंत्रोच्चारण से वातावरण गूंज उठता है जो पवित्र वैदिक मंत्र है—और फिर मैं देखता हूं मृगचर्म पर बैठे उस वयोवृद्ध ऋषि को अपने दो शिष्यों कुश और लव के साथ, जो उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विषधर सर्प ने भी अपना स्वभाव त्याग दिया है, और शांत भाव से फन उठाएं चुपचाप मंत्रोच्चारण सुन रहा है। ढेर के ढेर पशु गंगा में प्यास बुझाने के लिए आते हुए अचानक ठिठक जाते हैं जिससे वे उन पवित्र मंत्रों को सुन सकें। पास में ही अधलेटा एक हिरण टकटकी लगाए महर्षि को देख रहा है। रामायण में जो कुछ भी है कितना उदात्त है। घास के एक छोटे से तिनके तक का वर्णन कितनी उत्कृष्टता से किया गया है। परंतु यह कितने दुःख का विषय है कि अपने धर्म से विमुख हो जाने के कारण हम ऐसे उदात्त और उत्कृष्ट वर्णनों को समझने में असमर्थ रहते हैं। मुझे एक और दृश्य याद आ रहा है : गंगा इस संसार का समस्त कलुश ढोकर ले जाती हुई निरंतर वह रही है, उसके तट पर योगिजन तपस्यारत है। कुछ ही आंखें अधमुंदी हैं और वे प्रातः की प्रार्थना में निमग्न है। कुछ ने प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की हैं और वनफूलों, चंदन और धूप-दीप से उनकी पूजा कर रहे हैं। उनमें से कुछ मंत्रोचचायण कर रहे हैं, जिनकी ध्वनि से वातावरण गूंज रहा है। कुछ गंगा के पवित्र जल में स्नान कर अपने आपको निर्मल बना रहे हैं। और कुछ अन्य, पूजा के लिए फूल चुनते हुए गुनगुना रहे हैं। यह सब कितना महान है, और आंखों और मन के लिए कितना सुखद। लेकिन आज वे सब मंत्रदृष्टा ऋषि कहां है? उनकी पूजा और उनके संस्कार? यह सब सोच कर हृदय विदीर्ण हो जाता है हमने अपना धर्म को दिया है और वस्तुतः सब कुछ खो दिया है अपना राष्ट्रीय जीवन भी अब हम एक दुर्बल गुलाम धर्म विहीन और श्राप ग्रस्त राष्ट्र बनकर रह गए हैं हे भगवान भारत क्या था और आज पाटन के किस ग्रंथ में पहुंच गया है क्या तुम अब भी आकर इसका उधर नहीं करोगे यह तुम्हारी ही भूमि है लेकिन देखो प्रभु आज उसकी दशा कैसी है कहां है वह सनातन धर्म जिसकी स्थापना तुम्हारे वरद पुत्रों ने की थी वह धर्म और वह राष्ट्र जिसकी स्थापना और जिसका निर्माण हमारी पूर्वज आर्यों ने किया था आज धूलि धूसर है ही करुणाकर हम पर दया करो और हमें बचाओ मां जब मैं कोई पत्र लिखने बैठता हूं तो मुझे ध्यान ही नहीं रहता की क्या और कितना लिखना है जो कुछ भी मुझे तत्काल सोचता है मैं लिख देता हूं और यह सोचने की चिंता नहीं करता कि मैं क्या लिखा है और क्यों लिखा है मैं जो चाहता हूं और मेरा मन मुझे जैसे प्रेरित करता है वैसे मैं लिखता जाता हूं अगर मैंने कोई अनुचित बात लिख दी हो तो आप मुझे क्षमा करेंगे जब मैं अपने परम श्रद्धा गुरुदेव के ब्रह्मलीन होने की बात सोचता हूं तो मुझे नहीं समझ में नहीं आता कि मैं इस पर दुख प्रकट करूं या प्रसन्नता हम नहीं जानते की मृत्यु के बाद मनुष्य कहां जाता है और इसके साथ क्या घटित होता है लेकिन अंत में हमारी आत्मा उसे परमात्मा में लीन हो जाती है और वही हमारे लिए सबसे अधिक उल्हास का क्षण होता है तब ना दुख होता है ना सुख और पूर्व जन्म के कष्ट से मुक्त होकर हम अनंत आनंद में नमक न हो जाते हैं जब मैं यह सोचता हूं कि वह वहां के लिए गए हैं जहां अखंड शांति है और वह अगर आत्माओं के साथ स्वर्गीय आनंद का उपभोग कर रहे हैं तो मुझे दुखी होने का कोई कारण नहीं प्रतीत होता हमें दुख के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि वह अनंत आनंद लोक में पहुंच गए हैं और उनके आनंद की बात सोच कर हमें भी प्रसन्नता होना चाहिए दयाल परमेश्वर तो कुछ भी करता है संसार के हित के लिए करता है इसकी अनुभूति हमको आरंभ में नहीं होती थी क्योंकि हमारी बुद्धि तब कच्ची थी जब हमें यह अनुभूति होने लगती है तभी हम जान पाते हैं कि वास्तव में जो कुछ भी भगवान कर रहा है तभी हम जान पाते हैं की वास्तविक वास्तव में जो कुछ भी भगवान कर रहा है वह हमारी अच्छाई के लिए है अगर भगवान ने अपने किसी भी उद्देश्य को पूर्ति के लिए उन्हें हमसे दूर खींच लिया है तो हमें दुख से अभिभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि जो कुछ उसका है उसे वह कभी भी अपनी इच्छा अनुसार वापस ले सकता है और इसमें कोई दखल देने का अधिकार हमें नहीं है।
और अगर भगवान की यह इच्छा है कि गुरुदेव लोगों को धर्म के पथ पर चलाने के लिए, सनातन धर्म के सिद्धांतों से प्रेरणा देने के लिए, मनुष्य शरीर में फिर से जन्म लें तो इसलिए भी हमें दुःखी होने कि कोई आवश्यकता नहीं है। अगर ऐसा होता है तो संसार का महान कल्याण होगा। जो चीज संसार की भलाई के लिए है, हम उसके विरुद्ध नहीं जा सकते। उनसे प्रत्येक मनुष्य का हित होगा। हम भारतीय हैं, इसलिए भारत का कल्याण हमारा अपना कल्याण होगा। और उनका पुनर्जन्म होता है, और वे अपने भारतीय बंधुओं को धर्म-पथ पर अग्रसर करते हैं, तो हमें पर अपार प्रसन्नता होनी चाहिए। स्वयं भगवान ने गीता में कहा है—
देहीनोSस्मिनयथा देहे कौमारं यौवनं जरा
तथा देहातंर प्राप्ति धीरेस्तत्र न मुह्यति।
अर्थात जैसे जीवात्मा की इस देह में बालपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
हम सब कुशल से हैं। हमारा रक्षक भगवान है और उसकी इच्छा सर्वोपरि है। हम सब कोई इसकी लीला के सहचर है, और हममें कितनी शक्ति है, यह उसकी कृपा पर निर्भर करता है। हम बगिया के माली हैं और वह मालिक है। हम बगिया में काम करते हैं, लेकिन वहां के फल-फूल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। जो भी फल वहां होते हैं उन्हें हम उसके चरणों में अर्पित करते हैं कर देते हैं। हमें केवल काम करने का अधिकार है, कर्म ही हमारा कर्तव्य है। कर्म- फल का स्वामी वह है, हम नहीं। यही बात भगवान ने गीता में कहीं—
‘कर्मण्ये वाधिकारिस्ते मां फलेषु कदाचन’
लिलि अब कहां है। और कैसी है? मैं उसे नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मुझे नहीं मालूम कि कहा है? मामी मां और भाभियां कहां है? मेरे भाई कैसे हैं? और सबके क्या हाल है? पिताजी कैसे हैं? और आप कैसी हैं? कृपया मेरा प्रणाम स्वीकार करें। मेजदादा की कोई खबर आपको मिली है क्या? पिछले दो या तीन डाक- दिवसों से मुझे कोई पत्र नहीं मिला नूतन मामाबाबू कैसे हैं?
मैंने सुना है कि छोटी मामी मां बहुत बीमार हैं। उनकी तबियत अब कैसी है? शारदा के क्या समाचार है?
आपका आज्ञाकारी पुत्र
सुभाष
[‘नेताजी संपूर्ण वाङमय’ खण्ड – 1, पृष्ठ— (124-127)]