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सामाजिक परम्पराओं के लिए प्रतिबद्ध भदरी परिवार – दिव्य अग्रवाल

 

शब्दों के द्वारा जन भावना को प्रसारित करना ही कलम का मुख्य उद्देश्य है आज समाज में इतनी नकारात्मकता है जिसके कारण ऐसे लेखनी की संख्या कम ही होती है जिसमें सकारात्मकता प्रतीत हो परन्तु जब कहीं सकारात्मकता प्रतीत होती है तो कलम भी स्वयं को रोक नहीं पाती । इस लेख द्वारा सामाजिक ताने बाने को समझने का प्रयास अवश्य करें जो आज लगभग ज्यादातर क्षेत्रों में समाप्त हो चुका है लेकिन अवध क्षेत्र के कुंडा विधानसभा में इस ताने बाने को जीवित रखने के लिए भदरी रियासत का परिवार निरंतर प्रयासरत है । एक छोटे उदहारण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं की यदि एक दिन में तीन तीन मंगलकार्य के निमंत्रण प्राप्त हो जाएँ तो हम सामान्यतः तीनो जगह जल्दी जल्दी जाते हैं,क्षुष्म जलपान करते हैं और बहार दरवाजे पर खड़े हुए किसी पारिवारिक सदस्य को शगुन का लिफाफा पकड़ाकर इतिश्री कर देते है ।यह जांनने तक का प्रयास नहीं करते की परिवार को किसी सहयोग की आवश्यकता तो नहीं, यह लगभग ऐसा है की किसी होटल में गए और जलपान के बदले बिल का भुगतान कर दिया परन्तु भदरी रियासत के राजा भइया राजा रघुराज प्रताप सिंह का व्यवहार पूर्णतः सामाजिक और सनातनी परम्पराओं के अनुरूप है। एक दिन में सैकड़ो निमंत्रण होने के पश्चात प्रत्येक निमंत्रण पर व्यक्तिगत रूप से जाना ,घर के बुजुर्गो के साथ बैठना तत्पश्चात घर के बच्चो और महिलाओ से मिलकर यह पूछना की किसी प्रकार की कोई आवश्यकता तो नहीं, यह अहसास कराना की आप अकेले नहीं अपितु हम सब आपके साथ हैं यह सामाजिक ताने बाने को जीवित रखने का प्रत्यक्ष प्रमाण है । राजा भइया के जनता दरबार में जनसुनवाई के सैकड़ो आवेदन प्रतिदिन आते हैं परन्तु इन आवेदनों के बीच शादी विवाह के निमंत्रण के साथ सहायता हेतु ख़ास प्रकार के आवेदन भी प्राप्त होते हैं जिन पर कोई सुनवाई नहीं अपितु सहायता सीधे घर पहुँच जाती है , राजा जब अपनी कोठी से क्षेत्र में निकलते हैं तो देखा गया है की राजा अकस्मात ही सड़क पर कहीं भी रूककर लोंगो से मिलकर उनकी निजी समस्यों का संज्ञान लेकर त्वरित निस्तारण भी कर देते हैं । शायद यही कारण है की जब राजा भइया का काफिला मार्ग से निकलता है तो लोग अपनी दुकानों , मकानों से बहार निकलकर , खड़े होकर धरती को अपने हाथो से स्पर्श कर माथे से लगा लेते हैं उस समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे भक्त मंदिर की सीढ़यों को स्पर्श कर यह आभाष कर रहे हों की उन्होंने भगवान् के चरण स्पर्श कर लिए। वस्तुतः किसी भी मानव की तुलना भगवान् से करना सर्वथा गलत है परन्तु भावना के निमित सही या गलत महत्व नहीं रखता ,यह भी अटल सत्य है । अब आप स्वयं कल्पना कीजिए की क्या आज भी ऐसे लोग हैं जिनके सम्मान में आम जनमानस ऐसा स्नेह और श्रद्धापूर्वक व्यवहार करते हों, शायद न के बराबर हैं क्यूंकि इस सम्मान को अर्जित करने के लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ता है , संघर्षो के समक्ष चट्टान की तरह खड़ा रहना पड़ता है ।

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