धर्म

जहाँ पर खोने में प्रसन्नता हो, त्याग-तपस्या में प्रसन्नता हो, मन में हर्ष की अनुभूति हो तो समझ लेना चाहिए कि यही मन की सद्वृत्ति है। इससे बढ़कर हर्ष का और कोई सदुपयोग नहीं है –

✍️रोहित नंदन मिश्र

संकेत आता है कि महर्षि विश्वामित्र जब महाराज दशरथ के पास आये तो महाराज दशरथ बड़े प्रसन्न हुए, उनका स्वागत किया, पूजन किया, भोजन निवेदित किया और तब बड़े उत्साह और प्रसन्नता से पूछा – आपके आने का कारण क्या है ? आज्ञा दीजिए ! आपके कहने में देर है, मेरे करने में देर नहीं होगी। विश्वामित्र उनके इस दावे को सुनकर मन ही मन हँँसे। वे समझ रहे थे कि दशरथ जितने उत्साह के साथ ऐसा कह रहे हैं, मेरी माँग सुनने के बाद भी उतना उत्साह रहेगा, इसमें संदेह है। उन्होंने अपनी मॉंग दशरथजी के सामने रख दी। कहा —
अनुज समेत देहु रघुनाथा।
*निसिचर बध मैं होब सनाथा।।* १/२०६/१०
‘आप लक्ष्मण के साथ राम को दीजिए ! इनके द्वारा राक्षसों का वध होगा और इन दोनों को पाकर मैं सनाथ हो जाऊँगा।’ बस, इतना सुनते ही महाराज दशरथ के चेहरे का रंग उड़ गया। मुख पर पीलापन तथा घबराहट छा गयी।
ऐसा नहीं था कि महाराज दशरथ उदार या दानी नहीं थे, उन्होंने विश्वामित्रजी से यही कहा था कि वे धरती, गाय, धन या खजाना कुछ भी माँग लें, वे सहर्ष सर्वस्व दे देंगे, यहाँ तक कि प्राणप्रिय अपना शरीर भी दे देंगे। परन्तु पुत्रों की मांग पर महाराज दशरथ प्रसन्न नहीं हो पाये। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने विश्वामित्र की थोड़ी आलोचना भी कर दी। विश्वामित्र जिस समय यज्ञ की भूमिका से बोले रहे थे, तब दशरथजी ने उसका उत्तर ममता की भूमिका से दिया। वे बोले – महाराज ! वृद्धावस्था में मैंने चार पुत्र प्राप्त किये, ब्राह्मण देवता ! आपने विचार करके नहीं माँगा —
*चौथेंपन पायउँ सुत चारी।*
*बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।* १/२०७/२
इतना कहने की आवश्यकता नहीं थी। बस, कह देते कि मैं राम को नहीं दे पाऊंगा। परन्तु उनकी बात सुनकर विश्वामित्र को मन ही मन हँसी आ गयी कि यह तो दशरथजी ने बिल्कुल उलटी बात कही। अरे ! वृद्धावस्था में ममता को घटाना है या बढ़ाना है ? नियम तो यह है कि व्यक्ति ज्यों-ज्यों वृद्ध हो, त्यों-त्यों अपने जीवन में ममता को त्यागकर वैराग्य को स्वीकार करे। यहाँ मैं तुम्हें ममता से त्याग की ओर ले जाना चाहता हूँ, त्याग-वैराग्य का उपदेश दे रहा हूँ और तुम उसी में अविवेक देख रहे हो ; तुम्हारा यह दृष्टिकोण तो बड़ा विचित्र है। विश्वामित्रजी ने दशरथजी के इन शब्दों को पकड़ा — *’पायउँ सुत चारी’* अर्थात ये पुत्र मुझे बड़े सौभाग्य से मिले हैं। विश्वामित्रजी का तात्पर्य यह था कि वृद्धावस्था में ये चारों पुत्र आपकी क्षमता या पुरुषार्थ से नहीं, बल्कि महर्षि वशिष्ठ की कृपा से प्राप्त हुए हैं।
एक संत से आपने अपना अभाव बताया और उन्होंने कृपा करके आशीर्वाद दे दिया और आपको चार पुत्र प्राप्त हुए । अब आज एक संत ही संकट में पड़कर आपसे दो पुत्र मांगने आया है ; तो तुम्हें आपत्ति हो रही है। व्यक्ति को कम से कम मूलधन लौटाने के लिए तो तैयार रहना चाहिए, परन्तु तुम तो आधा भी लौटाने को प्रस्तुत नहीं हो। सन्त ने तुम्हें चार पुत्र दिये और मैं तो केवल दो पुत्र ही मांगने आया हूँ , इसमें तुम्हें क्या आपत्ति होनी चाहिए ? तब भी दशरथजी का समाधान नहीं हो पा रहा था, लेकिन गुरु वशिष्ठ समझ गये। उन्होंने उसी बात को दूसरे ढंग से कहा। वे दशरथ के स्वभाव से परिचित थे, उनकी ममत्व की वृत्ति को समझ रहे थे। उन्होंने सोचा कि अगर लोभी व्यक्ति से दान माँगा जाय तो देने में वह आनाकानी करता है, परन्तु यदि उससे ब्याज पर रुपये माँगे जायें तो वह बड़ी खुशी से दे देता है। वह सोचता है कि रुपये जब लौटेंगे, तो साथ में ब्याज भी मिलेगा। वशिष्ठजी ने महाराज दशरथ से यही कहा कि आप देकर घाटे में नहीं रहेंगे। वे तुम्हारे पुत्रों को सदा के लिए थोड़े ही ले जा रहे हैं। आप निश्चिन्त रहिए, वे कुछ दिन बाद आपके पुत्रों को लेकर वापस आयेंगे, तब आप देखेंगे कि आप घाटे में नहीं रहेंगे, ये मूलधन को दुगुना-चौगुना करके लौटा देंगे। वशिष्ठजी के ऐसा कहने पर दशरथजी कुछ आश्वस्त हुए। उनमें लोभ की वृत्ति उत्पन्न हुई और उन्होंने श्रीराम तथा लक्ष्मण को बुलाकर विश्वामित्र को सौंप दिया।
महाराजश्री दशरथ ने श्रीराम को दे तो दिया, परन्तु विश्वामित्रजी ने जो कहा था – *’देहु भूप मन हरषित’* हर्षित होकर दीजिए, इसका अभिप्राय यह है कि *दान देने में, गुरु और सन्त की सेवा में, बुराई को मिटाने के लिए संघर्ष करने में हर्ष होना चाहिए। यही हर्ष की सार्थकता है,* परन्तु दशरथजी में यह हर्ष की वृत्ति बड़ी कठिनाई से उत्पन्न हुई, परन्तु जब भगवान श्रीराम विश्वामित्र के साथ चले तब क्या उन्हें कहना पड़ा कि राम ! हर्षित होकर चलो ? गोस्वामीजी ने लिखा – *’हरषि चले मुनि भय हरन”* अर्थात श्रीराम सहज भाव से हर्षित हैं। यज्ञ की रक्षा के लिए जा रहे हैं, परन्तु साथ में न कवच है, न रथ, न सेना और न सेनापति। कष्टपूर्ण लम्बी यात्रा ! पैदल चले जा रहे हैं। वहाँ भयंकर राक्षसों से युद्ध करना है। गुरु और संतों की सेवा में राक्षसों को मिटाने के लिए जा रहे हैं। उसके लिए वे बड़ा से बड़ा कष्ट उठाने के लिए प्रस्तुत हैं, परन्तु चलते कैसे हैं ? *’हरषि चले’* अर्थात हर्षित होकर चले। भगवान राम के चरित्र में हर्ष दिखायी देता है और यह वृत्ति प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दिखायी देती है, परन्तु भेद कहाँ है ? श्रीराम के चरित्र में हर्ष की वृत्ति का सदुपयोग है। उनके मन में गुरु और सन्तों की सेवा करते हुए, समाज की सेवा करते हुए हर्ष की अनुभूति होती है। गोस्वामीजी कहते हैं —
*पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।* १/२०८
_भगवान श्रीराम गुरु की सेवा करने के लिए, क्षात्रधर्म का पालन करते हुए युद्ध करने को जा रहे हैं तो उन्हें हर्ष की अनुभूति हो रही है। यह हैं भगवान राम के चरित्र में हर्ष की वृत्ति। यही हर्ष की वृत्ति का सदुपयोग है।_ इस संदर्भ में हम और आगे बढ़े तो भगवान राम के जीवन में इससे भी अधिक हर्ष और उसका सर्वोत्कृष्ट रूप कब दिखायी देता है ? जब वे अयोध्या के राज्य का परित्याग करके जाने लगे। गोस्वामीजी कहते हैं कि उस समय सारे अयोध्या में शोक का वातावरण छाया हुआ है। श्रीराम को राज्य मिलते-मिलते घोषणा कर दी गयी कि उन्हें अयोध्या छोड़कर वन जाना होगा। जब हमें किसी वस्तु के मिलने की आशा बन जाती है और वह वस्तु मिल जाती है, तब तो हमें बड़ी प्रसन्नता होती है, पर आशा के विपरीत यदि वह वस्तु न मिले तो परम दुःख होता है। व्यक्ति यदि पहले से ही आशा न रखे, तो न मिलने पर प्रसन्नता होती है और न नहीं मिलने पर दुःख होता है। भगवान राम के चरित्र में हर्ष का जो सर्वश्रेष्ठ रूप है, वह साधारणतया हमारे-आपके जीवन में नहीं हो सकता।
भगवान राम को दिया गया राज्यपद जब छीन लिया गया और उन्हें वन जाने की आज्ञा दे दी गयी, तो उनके मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ? सामान्यतः यह व्यक्ति के जीवन में घोर विषाद का क्षण होता है। इसीलिए तो कैकेयी के मन में यह आशंका हुई कि जब मैं राम से कहूँगी कि उन्हें वन जाना होगा और भरत को राज्य मिलेगा, तो यह सुनकर उनके मुख पर मलिनता आ जायेगी। उनके मुख पर दुःख, आक्रोश तथा क्रोध का भाव झलकने लगेगा और संभव है वे विद्रोह की भी चेष्टा करें पर कैकेयी के मन में कहीं न कहीं यह दृढ़ आशा थी कि राम के स्वभाव में विद्रोह तथा संघर्ष की प्रवृत्ति नहीं है। इसीलिए जिस समय महाराज दशरथ मूर्च्छित पड़े हुए थे, तब सुमन्‍तजी आकर जब कैकेयीजी से पूछते हैं कि महाराज मूर्छित क्यों हैं ? तो उन्होंने सुमन्तजी से यही कहा —
*आनहु रामहि बेगि बोलाई।*
*समाचार तब पूँछेहु आई।।* २/३८/१
पहले राम को बुलाकर ले आओ, तब समाचार पूछना। कैकेयीजी को भय था कि यदि मैं सुमन्त के सामने अपने दोनों वरदानों के बारे में कह दूँगी तो प्रधानमंत्री होने के नाते ये आड़ी-तिरछी राजनैतिक बातें करके मेरी बात को पलटने की चेष्टा कर सकते हैं। श्रीराम के विषय में भी उनके मन में यह धारणा तो थी कि इसे सुनकर राम को दुःख तो अवश्य होगा, परन्तु साथ ही उनके मन में कहीं न कहीं यह विश्वास भी था कि राम का जो शील-स्वभाव है, उसकी रक्षा के लिए वे मेरी बात को चुपचाप स्वीकार कर लेंगे —
*रघुकुल दीपहि चलेउ लेवाई।* २/३८/७
भगवान श्रीराघवेन्द्र जब चले तो वहाँ पर गोस्वामीजी ने उनके लिए एक नया नाम लिखा कि सुमंतजी रघुकुल के दीपक को लेकर चले। दीपक में जैसे प्रकाश होता है, वैसे ही भगवान राम के मुख पर जो प्रसन्नता दिख रही है, उसी को दृष्टि में रखकर गोस्वामीजी कहते हैं कि वहाँ अँधेरा नहीं, प्रकाश है। उसके पश्चात जब श्रीराघवेन्द्र कैकेयी के पास पहुँचे, तो वहाँ का वातावरण देखकर समझ गये कि लगता है कि राज्याभिषेक की योजना किसी कारणवश स्थगित हो गयी है और तब उनके मुख पर जैसा भाव था, उसके अनुसार अब उन्हें दीपक कहना उपयुक्त न था। गोस्वामीजी ने भगवान राम का दूसरा नाम लिया। उन्हें मणि की उपाधि देते हुए बोले —
*जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।* २/३९
इसमें चतुराई क्या है ? दीपक में प्रकाश तो है, परन्तु वह तेलवाला प्रकाश है। तेल अथवा घी न हो तो दीपक चमक नहीं सकता। ऐसे ही संसार में कई लोग चमक रहे हैं, परन्तु पद का तेल, धन का घी, कुछ न कुछ तो मिला ही हुआ है। उनके मुख पर प्रसन्नता देखकर समझ लेना चाहिए कि पीछे किसी न किसी पद, सत्ता या ऐश्वर्य का तेल है, उसी से यह प्रकाश हो रहा है। परन्तु मणि के चमक के लिए न तो कोई बत्ती चाहिए, न तेल। *दीपक का प्रकाश वस्तुसापेक्ष है और मणि का प्रकाश वस्तु निरपेक्ष।* आगे चलकर गोस्वामीजी ने भगवान राम का एक और तीसरा नाम लिया, जो बड़ा सुन्दर है। भगवान राम के अनेक नाम हैं, परन्तु एक नाम सन्यासियों से मिलता-जुलता है। सन्यासियों के नाम के साथ बहुधा आनन्द शब्द जुड़ा हुआ होता है। यह बड़ा सार्थक है। इसका अभिप्राय यह है कि *जिसके जीवन में आनन्द की समग्र अभिव्यक्ति हो रही है, वही सच्चे अर्थों में सन्यासी है।*
श्रीराम ने कैकेयीजी से पूछा – माँ ! पिताजी मुझसे बोल क्यों नहीं रहे हैं ? लगता है कि मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है। तब कैकेयी ने बड़ी भूमिका बाँधकर कहा – राम ! तुमसे भला कोई अपराध हो सकता है ? तुम तो माता-पिता को सुख देनेवाले हो —
*तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता।*
*जननी जनक बंधु सुखदाता।।* २/४२/३
कैकेयी मानो कहना चाहती है कि यदि तुम इस उपाधि को सत्य प्रमाणित करना चाहते हो तो इसकी सार्थकता इसी में है कि भरत को राज्य मिले और तुम वन चले जाओ, तभी तो “माता-पिता के सुखदाता” कहलाओगे। पहले भूमिका बाँधी और तब अपनी बात कही । यह सुनकर भगवान राम के मुख पर कौन सा भाव प्रकट हुआ ? लिखा – *’मन मुसुकाइ’* । यहाँ गोस्वामीजी भगवान राम के चरित का बड़ा सुन्दर सामंजस्य करते हैं। भगवान मुस्कराते हैं, परन्तु मन में मुस्कराते हैं। यह उनकी एक सावधानी है। अभिप्राय क्या है इसका ? यह कि ऐसे समय में, विशेषकर जब महाराज दशरथ मूर्च्छित होकर पड़े हुए हैं, उनके प्राण संकट में हैं, चारों ओर का वातावरण विषाद से ग्रस्त है, आक्रोश से भरा हुआ है, भगवान श्रीराघवेन्द्र प्रत्यक्ष रूप-से अपने आनन्द को मुस्कान के रूप में प्रकट कर दूसरों को दुःख या चोट नहीं पहुँचाना चाहते। ये ऐसे अवसर हैं, जहाँ यदि व्यक्ति के मन में प्रसन्नता भी हो, तो उसे प्रकट नहीं करना चाहिए। *जहाँ हमारी प्रसन्नता देखकर दूसरों के मन में आक्रोश या विषाद उत्पन्न होने की संभावना हो, वहाँ अपनी प्रसन्नता को प्रकट कर देना बड़ी नासमझी है।* श्रीराम और लक्ष्मणजी में यही तो अन्तर था। परशुरामजी लक्ष्मण पर बहुत बिगड़े और उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। क्यों ? लक्ष्मणजी की बातों पर उन्हें उतना क्रोध नहीं आया, जितना उनके हंसने पर आया। लक्ष्मणजी उनको देखकर बार-बार हँसते थे। वे जितना ही हँसते थे, परशुरामजी का क्रोध उतना ही बढ़ता जाता था —
*हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी।*
*राम तोर भ्राता बड़ पापी।।* १/२७६/६
लक्ष्मण हंस रहे हैं और परशुराम भगवान राम से कह रहे हैं कि देखते नहीं क्या ? यह बड़ा पापी है। श्रीराम ने पूछा – महाराज ! इसमें से कौन-से लक्षण देखकर आप इसे पापी कह रहे हैं ? बोले – देखते नहीं ? यह हँस रहा है। अब हँसना यदि सबसे बड़ा पाप हो, तब तो परशुरामजी ने पाप की यह नयी परिभाषा कर दी, परन्तु उनका अभिप्राय यह था कि यह हँस नहीं रहा है, बल्कि मेरी हँसी उड़ा रहा है और इसीलिए यह बड़ा पापी है। परशुरामजी की बातें तो ऐसी थीं कि हँसी तो भगवान राम को भी आ रही थी। पर श्रीराम और लक्ष्मणजी में अन्तर है। लक्ष्मणजी अपनी हँसी को व्यक्त कर देते हैं, जिसे देखकर परशुरामजी को क्रोध आ जाता है। हँसी तो श्रीराघवेन्द्र को भी आती है। परशुरामजी जब श्रीराम से बोलने लगे तो उन्हें भी खूब हँसी आयी, पर उन्होंने अपनी हँसी होंठों तक न आने दी, बल्कि *’मन मुसुकाइ’*। वे मन ही मन मुस्कराकर परशुरामजी से बोले। इसका तात्पर्य यह था कि हमारे आनन्द से इनको कष्ट न हो। श्रीराम सावधान हैं और यहाँ भी वे अपने मन के आनन्द को प्रकट नहीं करते। जहाँ वातावरण उपयुक्त हो, वही आनन्द की अभिव्यक्ति उचित है। प्रतिकूल परिस्थिति में आनन्द भी दुःखदायी हो जाता है। भगवान राम केकेयीजी की बात सुनकर मन ही मन मुस्करा रहे हैं। गोस्वामीजी ने कहा – तब तो भगवान का नाम फिर बदलना पड़ेगा। पहले दीप कहा, फिर मणि और अब उन्होंने भगवान का तीसरा नाम लिया —
*मन मुसुकाइ भानुकूल भानू।*
*रामु सहज आनंद निधानू।।* २/४०/५
कहते हैं कि श्रीराम सहजानन्द हैं। सहजानन्द बहुत कम लोग होते हैं। जहाँ पर आनन्द के लिए न तो किसी वस्तु की अपेक्षा है और न किसी परिस्थिति की, उसे सहजानन्द कहते हैं। पर श्रीराम तो सहज आनन्द ही नहीं, सहज आनन्द के निधान हैं। श्रीराम मूर्तिमान सूर्य हैं। दीपक केवल एक घर को प्रकाशित करता है, परन्तु सूर्य तो सारे संसार को प्रकाश देता है, सारे जगत के अन्धकार को मिटा देता है। श्रीराम केवल अयोध्या के राजा होते तो अयोध्या का अन्धकार दूर होता, परन्तु जब वे वनवासी हो रहे हैं, तो सारे संसार की समस्या का समाधान होगा। भगवान राम के मन में प्रसन्नता किस बात की हो रही है ? *जहाँ पर खोने में प्रसन्नता हो, त्याग-तपस्या में प्रसन्नता हो, मन में हर्ष की अनुभूति हो तो समझ लेना चाहिए कि यही मन की सद्वृत्ति है। इससे बढ़कर हर्ष का और कोई सदुपयोग नहीं है।

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