मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी –

मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।। (१/२७०/७)
जब परशुराम जी अत्यंत क्रोध में कठोर वचन बोले कि –
कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा?
आजतक अनेकों ऋषि मुनि जनक जी के पास आते थे और वे सभी उनके ज्ञान की प्रसन्नता पूर्वक प्रशंसा करते थे लेकिन आज ये ऐसे मुनि आए हैं जो उन्हें जड़ कह रहे हैं। अभी तो मेरी दुलारी सीता के सौभाग्य प्राप्त हुआ था कि अब ये तो छीनने की बात करते हैं इसलिए चिंता होना स्वाभाविक है। ना जाने किस पुण्य के उदय होने से रघुवर राम जी के हाथों धनुष टूट गया और हम सभी प्रसन्नता व्यक्त कर ही रहे थे कि बीच में ये बाबाजी आ धमके।
सीय महतारी – क्या विधाता ने सीय के भाग्य में भी असीय लिख दिया है?
परशुराम जी के रूख और उनके स्वभाव स्मरण करते ही सुनयना जी अत्यंत विचलित हो गई हैं कि – हे विधाता! ये क्या कर रहे हो?
हम कैसे दृश्य की कल्पना कर रहे हैं और तुम कैसा दृश्य दिखाना चाहते हो ।
हे विधाता अब क्या होगा?
अब मिथिलेश भी क्या करें!
यदि सत्य कह दें कि शिव धनुष को राम जी ने तोड़ा है तो अनर्थ और यदि ना कहें तो देश, प्रजा, प्राण सबकी हानि।
बिधि (विधि)- विधाता,
बिधि – युक्ति,
बिधि – प्रकार,
बिधि – नियम कानून।
और ये सभी एक साथ मेरी पुत्री के कल्याण में ही क्यों बाधक बन रहे हैं।
भांति-भांति की कल्पनाओं में सुनयना जी के नयना भर आईं हैं और वे पाश्चाताप की अग्नि में जल रही हैं कि –
मन पछताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।