
✍️अजीत उपाध्याय
वाराणसी:- रामनगर रामलीला के सत्ताईसवें दिन का प्रसंग –
ब्रम्ह जब लीला में साथ बैठा हुआ है तो आकाश के देवता पृथ्वी पर चल रही राम जी की लीला को कहां रोक सकते है। सुबह से ही कड़ाके की बिजली के साथ भारी वर्षा हो रही है परंतु काशी कहां अपने धरोहर को छोड़ने वाली है।लीला प्रेमी लीला की प्रतिक्षा में लंका प्रांगड़ में बैठकर वर्षा को चुनौती दे रहे थे। सभी इसी प्रतीक्षा में बैठे है कि लीला नहीं तो आरती ही मिल जाय परंतु राज आज्ञा आते ही सभी लीला पात्र लीला में आ गए ।कुछ देर बाद महाराज के आते ही लीला शुरू हुई। उसी वर्षा में रामायणी जन रामायण गायन शुरू करते है तभी सभी लीला प्रेमी हर हर महादेव और बोल दे राजा रामचंद्र की जय का उद्घोष करने लगे। तत्पश्चात राम जी का संवाद हुआ जानकी जी को मेरे जीत की सूचना देकर सम्मान सहित उनको मेरे पास ले आओ। लीला प्रेमी अपने ब्रम्ह के साथ विद्या माया को विराजमान होते देख कर भाव विभोर हो गए। लीला के सभी पात्र भींगे होने पर भी अपने मर्यादा में तथा व्यास जी की कर्मठता के कारण अपने संवाद को पूरा उसी निष्ठा से बोल रहे थे जैसे सामान्य दिवस में बोलते है। कुछ कुछ प्रसंग का मंचन अवश्य बाधित हुआ परंतु रामचरित मानस का गायन पूर्ण रूप से हुआ और मंचन भी जितना संभव हो सका अधिकांशतः कराया गया। आज की कथा इस प्रकार है कि,
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना।।समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु।।
छंद:श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली।।
चौपाई:आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी।।दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया।।
आज की कथा में रावण के मारे जाने पर राम जी लक्ष्मण जी को लंका भेजकर विभीषण जी का राजतिलक करवाते हैं ।तत्पश्चात हनुमान जी को जानकी जी की सुधि लेने के लिए भेजते है ।सीता जी कहती है,” मैंने कुछ अवश्य पाप किए होंगे जिसके कारण भगवान हमको अपने पास नहीं बुला रहे है।” हनुमान जी महाराज सारा वृतांत माता जानकी से कहते है। तत्पश्चात हनुमान जी राम जी के पास आकर माता जानकी की व्यथा सुनाते हैं।तब राम जी, विभीषण जी को सीता जी को लाने के लिए आज्ञा देते है तब विभीषण जी जानकी जी का श्रृंगार करवाकर पालकी में बैठाकर प्रभु के पास ले आते है परन्तु राम जी उनकी पवित्रता का प्रमाण के लिए अग्नि परीक्षा लेते है परन्तु हम सभी रामचरित मानस पढ़े तो इसके पीछे का रहस्य पता चलता है कि रावण के पास जो सीता जी अशोक वाटिका में थी वो तो माया की थी। पंचवटी पर राम जी ने सीता जी को माया की सीता बनने को बोला था। भगवन ने तो अग्नि देव से अपनी पवित्र महान पतिव्रता सीता जी को लेने के लिए यह अग्नि परीक्षा का नाट्य किया। सभी अग्नि परीक्षा से दुःखी होते है परन्तु माता सीता जी को स्वयं अग्नि देव शीतलता प्रदान करते हुए राम जी के साथ सीता जी को विराजमान करके अपने धाम को चले जाते है । माता सीता और प्रभु राम जी को एक साथ विराजमान देखकर देवता ,ब्रम्हा जी शंकर जी, इंद्र जी स्तुति करने आते है ।दशरथ जी भी स्वर्ग से मिलने आते है। पिता जी को देखकर सब भावविभोर हो जाते हैं। इंद्र देव बहुत तरीके से भगवन से क्षमा और गुणगान करते है। तुलसी दास जी लिखते हैं:
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।
भगवन के आदेश देने पर जो वानरी सेना युद्ध में मारी गई होती है उन्हे अमृत वर्षा करके इंद्र जी जीवित करते है।तब राम जी अयोध्या चलने को बोलते है क्योंकि उनको भरत जी की बहुत चिंता थी।तब विभीषण जी पुष्पक विमान लाते है सभी उसमे बैठ जाते है। भगवान सभी बंदरो को अपनी भक्ति प्रदान करते हुवे विदा लेते है और पुष्पक विमान में विभीषण हनुमान, सुग्रीव ,जामवंत नल नील ,लक्ष्मणजी, सीता जी के साथ अयोध्या को चल देते है ।रास्ते में सीता जी को सभी स्थलों से अवगत कराते ऋषि मुनियों से मिलते संगम दर्शन करते गंगा के तट पर आते है। हनुमान जी को साधु का वेष धारण करके भरत जी से मिलने को भेजते है इधर निषादराज राम जी के आने की खबर सुनकर गंगा किनारे आते है और भगवन से मिलते है। सीता जी गंगा पूजन करती है और सभी का कुशल मंगल से अयोध्या आने का धन्यवाद देते हुए गंगा माता जी का आशीर्वाद लेती है। यही कथा का विश्राम हो जाता है और आज वर्षा के कारण लंका से थोड़ा आगे रामेश्वरम जी पास ही पुष्पक विमान पर अतिसुंदर आरती की झांकी संपन्न हुई।आज की आरती निषादराज जी करते हैं।
नाटी इमली भरत मिलाप –
काशी अपने धरोहर को संजोने जानती है। इस संदर्भ में कभी भी काशी को कोई पार नहीं पा सकता । बिजली चमके या भारी वर्षा हो लीला की परंपरा नहीं रुकती। धन्य है काशी! धन्य है भगवन की लीला! नाटी इमली भरत मिलाप लख्खा मेला में शामिल है। भक्तों श्रद्धालुओं की भी श्रद्धा अतुलनीय है जो इस भारी वर्षा बिजली में भी वहां अनुशासन बनाकर दर्शन किए। काशी और काशी वासी अपनी संस्कृति,अपनी परंपरा को कभी नहीं छोड़ते।