
✍️अजीत उपाध्याय –
वाराणसी:-
विश्व प्रसिद्ध रामनगर रामलीला में के बारहवें दिन का प्रसंग –
कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥
आज के कथा का आरंभ भरद्वाज मुनि के आश्रम से होता हैं। जहां भरत जी, मुनी भरद्वाज जी से चित्रकूट चलने के लिए आज्ञा लेते है। वहां स्वर्ग लोक में उथल पुथल हो जाती है। इंद्र जी चिंतित हो जाते है कि यदि भरत जी से राम जी का मिलन हो जाएगा तो बनी बात बिगड़ जाएगी। इस पर देवतों के गुरु बृहस्पति जी, इंद्र जी को समझाते हुए कहते है की यदि यहां कपट करोगे तो वह कपट तुम पर पलट कर आएगी । भगवान का बुरा करने पर तो भगवान क्षमा कर देते है पर उनके भक्तो का बुरा करने पर उनकी क्रोधाग्नि में जल जाता है इससे भरत जी को जपो। जिससे कार्य सिद्ध हो जायेगा। ऐसा ज्ञान देने के बाद इंद्र जी भरत जी की वंदना करते है। तत्पश्चात सभी अयोध्यावासी राम जी से मिलने के लिए यमुना पार करके नगर मेंआते है। जहां कोल – भील भरत और शत्रुघ्न जी को देखकर राम लक्ष्मण की छवि को देखने लगते हैं,कुछ कहते है ये देखने में राम लक्ष्मण जैसे ही लगते है परन्तु इनके साथ चतुरंगिनी सेना जा रही हैं संग में सीता जी भी नहीं तब कोई उसमे से बताता हैं कि भरत जी ,राम के छोटे भाई हैं और वो राम जी को मनाने जा रहे है ,कुछ कहते है कि कैसे माता पिता हैं ? जो ऐसे बालको को वन भेजते हैं, कुछ कहते ये हमारे भाग्य से यहां आए है जो हम सभी को दर्शन का लाभ मिला।तत्पश्चात यहां चित्रकूट पर एक कोल राम जी को जाके बताता है कि सेना के साथ भरत जी आते है ये सुनकर लक्ष्मण जी क्रोधित हो जाते है और वो कटु वचन बोलते है कि भरत जी आपको अकेला पाकर वन में आपको मारने के लिए आ रहे है और मै उनसे युद्ध करूंगा। तभी एक आकाशवाणी होती हैं कि हे! लक्ष्मण जी बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए तभी राम जी उनको समझाते हैं कि भरत को राज्य का लोभ हो ही नहीं सकता। तभी निषादराज जी भरत जी को राम जी की परम कुटी दिखाते है और इधर लक्ष्मण जी राम जी से कहते है भरत जी आपको प्रणाम कर रहे है तब राम लक्ष्मण जी सब कुछ उद्वेग में त्यागकर भरत जी के तरफ दौड़ जाते है। भगवन सभी से प्रेम पूर्वक आलिंगन करते है। सभी माताओं से राम,लक्ष्मण और सीता जी मिलते है।
आज एक गूढ़ तत्व की भी विवेचना करना चाहता हूं जब गुरु वशिष्ठ जी निषाद राज की को आलिंगन करते है। आप सभी ध्यान दिए होंगे जब भरत जी निषादराज जी से प्रथम बार मिलते है और आलिंगन करते है परंतु वशिष्ठ जी शायद ब्राह्मण संस्कार के औपचारिकता में ही फंसे रह जाते है और राम सखा को आलिंगन नही करते है परंतु जब आज जब भगवन को स्वयं ही निषादराज से चित्रकूट पर मिलते देखते है तो शायद उनको अपनी गलती का भान होता है इसलिए बाबा बहुत सुंदर ही चौपाई लिख देते है,
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
अर्थ देखे तो,
प्रेम से पुलकित होकर निषादराज ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो। इस प्रसंग में मेरा भाव तो मुझसे यही कहता है जिसको भगवान ने अपना मान लिया वो
जाति,कुल,ज्ञान, अज्ञान सबसे ऊपर उठ जाता है और जिसमे राम जी के प्रति प्रेम ह्रदय में हो वो फिर किसी भी जाति समुदाय से जुड़ा है वो परम पवित्र ही हो जाता है। अब आइए लीला की ओर बढ़ते है। सभी एक दूसरे से मिलने के बाद सभी आश्रम में जाते है।पिता के मृत्यु का समाचार सुनकर राम जी व्यथित होते है। तत्पश्चात मंदाकिनी में तर्पण करके सभी स्नान करते है। कोल भील और पुरवासी के बीच बड़ा सुंदर संवाद होता है।यहीं कथा का विश्राम हो जाता हैं।आज की आरती निषादराज जी करते हैं।