रामनगर रामलीला के नवें दिन का प्रसंग; श्री राम अयोध्या जी का अयोध्या से वन को जाना,श्रृंगवेरपुर में निषादराज को लक्ष्मणजी को उपदेश देना –

✍️अजीत उपाध्याय –
विश्वप्रसिद्ध रामनगर रामलीला के नवें दिन का प्रसंग –
रामु तुरत मुनि वेष बनाई । चले जनक जन निही सिरु नायी।
राम बियोग बिकल सब ठा ढे। जह तह मन हूं चित्र लिखी काढ़े।।
आज की कथा माता कौशल्या के रनिवास से प्रारंभ होती है। जहां माता राम जी से बोलती है। हे! राम ये सब विधाता का करा हैं अब आगे जो कुछ होगा वो भी विधाता ही करेगा ,धन्य है राम की माता। देवी सीता भी वन जाने की हठ करती है। भगवान राम और माता कौशल्या के समझाने पर भी नहीं मानती है वो कहती है, जहां तक संसार में नाते है वो सब अपने पति के चरणों से बढ़कर नहीं है। आप जहां रहेंगे मैं वही रहूंगी। तब सिया राम दोनो ही माता से आज्ञा लेकर आगे बढ़ते है तभी लक्ष्मण जी दौड़ कर आते है वो भी चलने का हठ करते है।भगवान उनको घर रुकने के लिए बोलते है तब लक्ष्मण जी बहुत ही रूदन भाव से कहते है, हे! रघुनाथ मैं तो आपका दास हौं चाहे आप बिसार दो या अपने साथ ले चलो।मैने तो आपको हो सब कुछ अपना मान लिया है। पिता,माता ,गुरु सब आप ही हो। कृपा करके मुझे मत तजो। भगवन लक्ष्मण जी का ऐसा प्रेम देखकर कहते है जाओ माता सुमित्रा से विदा मांग के आवो। यहां माता के पास आकर जब सभी समाचार लक्ष्मण जी सुनाते है, तो वह बहुत दुखी होती है और कहती है तुम्हारा यहां कोई काम नहीं है तुम्हारे भाग्य से ही राम जी वन जाते है।जहां सिया राम है वही अयोध्या है।
तुम्हारा यहां कुछ काम नही तब लक्ष्मण जी माता से आशिर्वाद लेकर वो भी राम जी के साथ अंतिम विदाई मांगने पिता के पास जाते है। महाराज दशरथ तीनों को वन जाते देख अचेत हो जाते है। जानकी जी को महाराज दशरथ बहुत रोकने का प्रयास करते है परंतु श्री राम जी को कोई छोड़ना नहीं चाहता। तत्पश्चात श्रीराम,सीता जी,लक्ष्मण जी मुनि चीर पहनकर गुरु वशिष्ठजी से आज्ञा लेकर चल देते है। तब महाराज दशरथ अपने मंत्री सुमंत जी को रथ के साथ भेजते है, कि उन्हें कुछ दिन वन दिखाकर ले आना नहीं तो मेरा मरना निश्चित है। सभी अयोध्यावासी राम जी को जाते देख विकल होकर उनके रथ के पीछे – पीछे जाते है। राम जी सरयू के किनारे जब आते है तब राम जी सुमंत्र जी से रात के अंधेरे में रथ को ऐसा चलाने को बोलते है कि पहिए का निशान ना दिखे,जब सुबह अयोध्या वासी राम जी को नहीं पाते तो रोते बिलखते अयोध्या वापस लौट जाते है। यहां श्रृंगवेरपुर पहुंचने पर राम जी अपने सखा निषादराज से मिलते है। निषाद जी सभी समाचार लेकर उनका स्वागत करते है। निषादराज जी भगवन को नगर में चलने के लिए आग्रह करते है परंतु राम जी वहीं सिंसुपा वृक्ष के पास रहते है। रात होने पर लक्ष्मण जी पहरेदारी करते है तब ये दृश्य निषादराज देखकर भावविभोर होकर रोने लगते है और कहते है कि इतने नाना प्रकार के ऐश्वर्य व्यर्थ बनाया जब श्री राम और माता सीता ऐसे कुशा पर सोते है यह सब माता कैकेई के करनी का फल है। तब लक्ष्मण जी उनको समझाते है।
बाबा तुलसी दास जी ने जो चौपाई लिखी है वो गीता उपदेश ही है। बाबा लिखते है,
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दु:ख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥ अर्थ देखे तो,
तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं। आगे लक्ष्मण जी कहते है, जितना भी संसार में देख रहे हो मित्र,शत्रु, अच्छा,बुरा, पाप,पुण्य सब माया है। सब स्वप्न जैसा है।
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।। उसी प्रकार से यह संसार स्वप्न जैसा झूठा है। यह जिसे तुम कुशा पर सोते देख रहे हो यह कोई मनुष्य नही परम् पिता परमेश्वर है। जो संतो भक्तों के लिए ऐसी लीला कर रहे है इससे आप व्यर्थ ना सोचिए और सीता राम के चरणों में प्रीति लगाइए। ऐसी ही राम कथा और राम स्वभाव की चर्चा होते ही यही कथा का विश्राम हो जाता है। तत्पश्चात भगवान की मनोरम आरती निषादराज जी के द्वारा होती है।