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घर में जंची कॉपी, तब भी हुए फेल

 

बादल सरोज

          घर में जंची कॉपी, तब भी हुए फेल

आर एस एस के शताब्दी वर्ष आयोजन में अगस्त के दूसरे पखवाड़े में राजधानी में दो प्रमुख कार्यक्रम हुए। इसमें अंतिम सप्ताह में, 26 से 28 अगस्त को हुये तीन दिनी ‘संवाद’ को ठीक-ठाक से सजा-संवार कर पोसा और परोसा गया। फेसिअल से लेकर ब्लीचिंग, फाउंडेशन से लेकर टचिंग तक रूप सज्जा के हर चरण को खूब सावधानी से बरता गया। फ्लोर मैनेजमेंट से मीडिया मैनेजमेंट तक सब चुस्त था ; संघ की छवि को सुधारने के लिए ऐसे ही प्रश्न प्रायोजित किये गए थे, जिनके उत्तर व्यवस्थित तरीके से संयोजित किये जा सकें। इसमें तीनों दिन संघ प्रमुख मोहन भागवत मौजूद रहे। पाले पोसे, नत्थी बद्ध, दिखाऊ-छपाऊ मीडिया ने इसे पर्याप्त कवरेज भी दिया ; कईयों ने तो इसमें संभावनाएं और न जाने क्या-क्या तक देख भी लिया।

 

मगर इससे ठीक सप्ताह भर पहले, 19-20 अगस्त को दिल्ली में ही हुये ऐसे दूसरे संवाद के साथ यह नहीं हुआ। इसमें हुए विमर्श और संवाद को सूरज की रौशनी देखने का मौक़ा नहीं मिला, हुलसकर उसके बारे में बताने की बात तो दूर रही, हर संभव कोशिश की गयी कि उसमें जो हुआ है, उसे सार्वजनिक ना ही किया जाए। ऐसा होना भी था ; क्योंकि इसमें 11 साल में किये-धरे का मूल्यांकन किया जा रहा था ; संघ के स्वयंसेवक की अगुआई वाली सरकार की कॉपियां खुद अपने ही प्रोफेसर द्वारा जाँची जा रही थी और जो रिजल्ट निकल रहा था, वह किसी को दिखाने लायक नहीं था।

 

इसलिए कोई तीन सप्ताह तक इस मंथन बैठक की खबरें छुपाकर, दबाकर रखी गई और बाद में जब इंडियन एक्सप्रेस ने, उसमें हाजिर कोई दर्जन भर भागीदारों से जानकारी जुटा कर उसे छाप दिया, तो ज्यादातर मीडिया समूहों ने उसकी अनदेखी करना ही चुना ; मगर जो जानकारी थी, वह इतनी प्रामाणिक थी कि खुद संघ ने भी उसका खंडन-वंडन करने की हिम्मत नहीं जुटाई।

 

दो दिन तक एक बंद कमरे में हुई यह बैठक कोई छोटे-मोटे लोगों की नहीं थी। यह खुद संघ से जुड़े उसके 6 आनुषांगिक संगठनों की चिंतन बैठक थी – ये वही आनुषांगिक अधीनस्थ संगठन हैं, जिनके संघ-संबद्ध होने से स्वयं सरसंघचालक भागवत जी ने एक सप्ताह बाद इंकार किया था और दावा किया था कि आरएसएस के अधीनस्थ कोई संगठन नहीं है।

 

19-20 अगस्त को हुई इस बैठक का आयोजन और समन्वय भारतीय मजदूर संघ के संगठन मंत्री बी सुरेंद्रन ने किया। उनके अलावा इसमें भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, ग्राहक पंचायत, स्वदेशी जागरण मंच और लघु उद्योग भारती के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। इनके अलावा खुद मोहन भागवत और उनके सह-सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल, सी.आर. मुकुंद, अरुण कुमार, रामदत्त चक्रधर, अतुल लिमये और आलोक कुमार लगातार बैठक में उपस्थित रहे। संघ विचारक कहे जाने वाले एस गुरुमूर्ति, भाजपा के संगठन महासचिव बी.एल. संतोष, महासचिव अरुण सिंह तो थे ही, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल और उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री सुरेश खन्ना भी आमंत्रित अतिथियों में शामिल थे।

 

जाहिर है यह हाशिये पर बैठे लोगों का जमावड़ा नहीं था – नीति-निर्धारक माने जाने वाले महारथियों का समावेश था। इसमें मोदी सरकार के पिछले 11 साल के कामकाज की समीक्षा की जा रही थी और कॉपियां जांचने का काम भी किसी नौसिखिये के हाथ में नहीं था ; एक जमाने में भाजपा की नेतृत्व त्रयी के हिस्से रहे और जब तक वह प्रयागराज नहीं हुआ था, तब तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे डॉ. मुरली मनोहर जोशी खुद रिमोट हाथ में लिए स्लाइड-दर-स्लाइड दिखाते हुए नंबर दे रहे थे और हाथों-हाथ अनुत्तीर्ण होने का रिपोर्ट कार्ड भी थमाते जा रहे थे।

 

जोशी जी पूरी तैयारी के साथ आये थे ; मोदी सरकार की नीतियों की दिशा और उसके चलते हुई भारत की दुर्दशा पर उन्होने अपनी बात कोई 70 स्लाइड्स के साथ रखी। इन्हें रखते हुए उन्होंने उन नोबल सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का भी सहारा लिया, जिन्हे संघ और भाजपा का कुनबा गरियाता रहता है, शान्ति निकेतन में बने उनके घर को गिराने के मंसूबे बनाता रहता है। अमर्त्य सेन के कथन कि “यदि किसी राष्ट्र की आर्थिक सफलता का आकलन केवल आय से किया जाता है, तो कल्याण का महत्वपूर्ण लक्ष्य चूक जाता है।“, को निष्कर्ष के रूप में रखते हुए उन्होने जो बातें कही, उन्हें पढ़कर भारत की संसद में घटी एक घटना की याद आई।

 

संसद में पेट्रोलियम पदार्थों के दामों के निर्धारण में घोटाले और तब की सरकार की गलत बयानीं का खंडन करते हुए प्रमोद महाजन एकदम ताजे तथ्यों और धारदार विश्लेषण के साथ भाषण झाड़े जा रहे थे और बीच-बीच में बगल की सीटों पर बैठे सीपीएम सांसद दीपंकर मुखर्जी की तरफ शरारती मुस्कान के साथ देखते भी जा रहे थे ; उसकी वजह यह थी कि महाजन जो भी बोल रहे थे, वह एक दिन पहले पीपुल्स डेमोक्रेसी/लोकलहर में छपे दीपंकर दा के लेख को पढ़कर बोल रहे थे – यह बात बाद में खुद उन्होंने सेन्ट्रल हॉल में कामरेड दीपंकर को धन्यवाद देते हुए स्वीकार भी की।

 

ठीक यही काम आर्थिक दुर्दशा पर दी अपनी प्रस्तुति में मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिए गए प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी कर रहे थे ; वे सिर्फ अमर्त्य सेन का ही सहारा नहीं ले रहे थे, बल्कि जो आंकड़े और तथ्य रख रहे थे, उनके लिए भी वे ऐसा लगा, जैसे लोकलहर में छपे प्रभात पटनायक का ही सहारा ले रहे थे।

 

इन सभी 70 स्लाइड्स के विवरण में जाए बिना सिर्फ कुछ को ही दर्ज करें, तो संघ की इस बैठक में उन्होंने बताया :

 

कि देश मे धन असमानता तेजी से बढ़ रही है और यह 2021 में, भारत की आबादी के सबसे धनी 10 प्रतिशत लोगों के पास, कुल घरेलू संपत्ति का 65 प्रतिशत हिस्सा जमा हो गया है।

 

कि चौथी अर्थव्यवस्था बनने का दावा देश की जनता की स्थिति से मेल नहीं खाता है और विषम है। जिस जापान को पीछे छोड़ चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने की हांकी जा रही है, उसकी तुलना में भारतीय नागरिक की आमदनी 12 गुना कम है ; कि भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी केवल 2,878.5 डॉलर है, जबकि जापान की 33,955.7 डॉलर है।

 

कि सरकार का नाम लिए बिना उन्होंने कहा कि ‘हम’ कृषि और स्वदेशी उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करने में विफल रहे हैं। हम, जो हमारे पास नहीं है, उसे पाने की योजना बनाते हैं। लेकिन जो हमारे पास है, उसकी रक्षा करने की योजना नहीं बनाते। जबकि हम ऐसे विदेशी सहयोग का स्वागत करते रहे, जो हमारे हितों और प्रतिष्ठा को कमजोर करते हैं। इस बात को और आगे बढाते हुए उन्होंने कहा कि विदेश पर अधिक निर्भर रहना भारत के हित में नहीं है।

 

कि तेजी से बढती आत्महत्यायें अच्छा संकेत नहीं है। उसमें भी उच्च शिक्षा हासिल कर रहे युवाओं की आत्महत्याओं में बढ़त रोजगार और विकास के अलग तरह के संकट की सूचना है। 2018 में 1.34 लाख आत्महत्या हुई, जो 2022 में बढ़कर 1.70 लाख हो गईं। 2019 से 2021 के बीच 35,950 छात्रों ने आत्महत्या की। वहीं, 2018 से 2023 तक आई आई टी, आई आई एम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसे संस्थानों में 98 छात्रों ने जान दी।

 

कि भारत का उच्च शिक्षा स्तर पर सकल नामांकन अनुपात (जी ई आर) 32.7% है, जबकि 1995 में यह मात्र 5.5% था। हालांकि यह प्रगति है, लेकिन पोलैंड (75.3%) और जापान (64.6%) जैसे देशों से बहुत पीछे है।

 

कि भारत की 43.5% कार्यबल कृषि क्षेत्र में है, जबकि पोलैंड में यह 7.6% और जापान में मात्र 3% है। वहीं, भारत के उद्योग क्षेत्र में 25.03% और सेवा क्षेत्र में 31.5% लोग काम करते हैं। तुलना में जापान के आंकड़े क्रमशः 73.3% और 62.8% हैं।

 

कि भारत में केवल 23.9% लोग वेतनभोगी कर्मचारी हैं, जबकि पोलैंड में यह संख्या 80.1% और जापान में 90.5% है।

 

जोशी जी जो कह रहे थे, उसमें कुछ भी नया नहीं है। देश इसे भुगत रहा है और अच्छी तरह जानता भी है। देश मोदी राज में महामारी की तरह बेलगाम होकर फैले पनपे उन कॉर्पोरेट के पूंजीवादी विकास के नियमों के हिसाब से भी असाधारण तेजी से हुए ‘विकास’ को भी जानता है, जिसे जोशी जी ने अपने रिपोर्ट कार्ड में शामिल नहीं किया।

 

जैसा कि खबरें बताती हैं, यह सिर्फ मुरली मनोहर जोशी की राय भर नहीं थी। प्रस्तुति के अंत में खुद सर संघचालक ने ‘जोशी जी सब कुछ बोल चुके हैं, अब और कुछ कहने को बाकी नहीं है’, कहकर उनके आंकलन के साथ सहमति-सी जता दी।

 

हालांकि संघ के सरकार्यवाह होसबोले ने बाद में इस सबको एक सामान्य चर्चा करार देते हुए स्पष्टीकरण दिया है कि ‘यह सरकार के कामकाज की आलोचना या समीक्षा नहीं है।‘ उन्होंने यह नहीं बताया कि अगर यह मोदी राज की विफलताएं नहीं हैं, तो फिर यह किस ईश्वरी या आसुरी शक्ति का किया धरा है!! खैर, इस तरह की पर्दादारी ही तो इस कुनबे की अदाकारी है।

 

इस गोपनीय बैठक के अब गोपनीय नहीं रहे निष्कर्षों को अलग-अलग तरह से देखा गया है। कुछ इसे संघ की ओर से मोदी जुंडली पर बनाए जा रहे दबाब के रूप में देखते है। ये ये वे लोग है, जो संघ और मोदी के अद्वैत में द्वैत होने का भरम पाले हुए है और कभी-कभार दिखावे के लिए चमकाई जाने वाली फुलझड़ियों में धमाके की आस लगाये बैठे हैं। कुछ के मुताबिक़ यह विपक्ष के स्पेस को भी खुद ही भरने की संघ की कलाकारी है, जिसे पहले कभी स्वदेशी जागरण मंच के नाम पर, तो बीच में कभी-कभार भारतीय मजदूर संघ के नाम पर छोटी-मोटी जमावटें करके, सीमित शोर-शराबे के साथ मंचित किया जाता रहा है।

 

कुछ हद तक यह इस काम को करती भी है। मगर असल बात यह है कि ‘विकास’ इस कदर मुंह के बल गिरा और जनता में क्षोभ और आक्रोश इतना बढ़ा है कि अब अन्तःपुर में भी बेचैनी और घबराहट होने लगी है। ऐसी गोपनीय कोशिशें अब उजागर हो गयी दिवालिया नीतियों के मजबूत जाल में उलझन- सुलझन की राह तलाशने की फ़िक्र में पड़ी हुई हैं। वे यह भूल रहे है कि मूल समस्या सिर्फ व्यवहार में नहीं है, उस विचार में है, जो संघ का विचार है। विदेशी कार्पोरेट से गलबहियां करके देश में कार्पोरेटी हिंदुत्व को मजबूत करते हुए इसी मुकाम पर पहुंचा जा सकता है, जिस पर पहुँचने पर मंथन बैठक में टसुये बहाए जा रहे हैं।

 

शंघाई कोऑपरेशन की बैठक से लौटकर, ट्रंप के संदेश को लपककर और ब्रिक्स की शिखर वार्ता में अपनी जगह एस जयशंकर को भेज कर मोदी सरकार ने साफ़ कर दिया है कि साम्राज्यवाद की दुम से अलग होने इच्छा और इच्छाशक्ति दोनों ही उसमें नहीं हैं ।

 

 

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