वाराणसी
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रामनगर रामलीला: श्रीराम जी ने संतो मुनियों की रक्षा के लिए किया ताड़का राक्षसी का वध –

 

✍️अजीत उपाध्याय

वाराणसी:-

रामनगर रामलीला के तीसरे दिन के प्रसंग को देखे तो गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते है,”विद्या निधि कही विद्या दिन्ही” अर्थ देखे तो जो विद्या के समुद्र अर्थात भगवान राम जी उनको भी विद्या देने वाले ऐसे विश्वामित्र जी वन में तपस्या करते हुए धरा पे बढ़े पापो कि चिंता करते हैं इसलिए वे महाराजा दशरथ से राम और लक्ष्मण जी को मांगने के लिए अयोध्या आते हैं। 

यहां अयोध्या में राजा दशरथ और गुरु वशिष्ठ जी विश्वामित्र के आने की खबर सुन कर उनका स्वागत करते है ।महाराजा दशरथ  ऋषि श्रेष्ठ से आने का प्रयोजन पूछते है। विश्वामित्र जी सारी व्यथा सुनाते हुए राम जी को अपने साथ ले चलने के लिए कहते है। महाराज मोह के वश होकर राम जी को देने से इंकार कर देते है तब गुरु वशिष्ठ जी के समझाने पर वो जाने की आज्ञा देते हैं। जब राम जी चलते है तब लक्ष्मण जी भी उनके साथ हो जाते है। जैसे त्रेतायुग में भगवन विश्वामित्र जी और लक्ष्मण जी के साथ पद यात्रा करते हुए वन में गए वैसे ही यहां रामनगर के लीला में भी ईश्वर पद यात्रा करते ही वन जाते हैं।यही सूक्ष्म से सूक्ष्म बातें लीला को अद्वितीय बनाते है। वन में आकर श्री राम जी ताड़क को मारि सुबाहु को जारी मारीच को निकास देवता और मुनियों की रक्षा करते हैं। 

तत्पश्चात देवी अहिल्या का उद्धार भगवन करते  हैं। गौतम मुनि के आश्रम से लीला अब जनकपुर की ओर चल देती है। बीच यात्रा में ही विश्वामित्र जी गंगा जी के धरा पर आने की कथा को सुनाते है। इस प्रसंग का वर्णन विस्तार रूप से श्री रामचरितमानस में नहीं है। यह एक क्षेपक कथा है। तत्पश्चात विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण जी के साथ धनुष यज्ञ देखने के लिए जनकपुर आते है। वहां महाराज जनक सभी का स्वागत सत्कार करते है। जब जनक जी श्री राम को देखते है तो,

मूरति मधुर मनोहर देखी, भयेउ विदेह विदेह बिसेखी।। प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर। बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ 215॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥1॥

जनक जी श्री राम जी को देखते ही उनका सारा ज्ञान तत्व,ब्रम्ह तत्व में विलीन हो जाता है तभी तो बाबा ने लिख दिया जो विदेह है वो विशेष विदेह हो जाते है अर्थात जिनको देह में रति ना हो वो ब्रम्ह दर्शन करके उनकी जो थोड़ी बहुत भी रति रही होगी वो भी समाप्त हो गई।

मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक जी ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर प्रेमभरी गंभीर वाणी से कहा –हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर

बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?

बाबा ने क्या सुंदर लिखा है। आप ही विचार करिए राजवंश का पालक तो ब्रम्ह ही हो सकता है और मुनियों का जो भी तिलक करे ऐसे ब्रम्ह है श्री राम।

* सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥ ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ आगे जनक जी कहते है मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप  है, इन्हें देखकर इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए ।। तब विश्वमित्र जी उनको कहते है ,आप जो कह रहे है वही सत्य है या परम ब्रह्म है जो दशरथ जी के पुत्र रूप में आएं है। यही सुंदर संवाद के बाद लीला का विराम हो जाता है और अंत में प्रतिदिन की तरह राम आरती होती है और आज की आरती एक संत द्वारा कि जाती है। कल फुलवारी की लीला बहुत सुंदर और मनोरम हैं। 

 

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