दिल्ली

अदालतों को समाज की जमीनी हकीकतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके – सुप्रीम कोर्ट

 

 

दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उचित संदेह से परे (बियॉन्ड रिजनेबल डाउट) सिद्धांत का गलत इस्तेमाल हो रहा है, जिसके कारण असली अपराधी कानून के शिकंजे से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि अपराधियों के बरी होने का ऐसा हर मामला समाज की सुरक्षा की भावना के खिलाफ विद्रोह और आपराधिक न्याय प्रणाली पर एक कलंक है। इसके साथ ही शीर्ष कोर्ट ने एक नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के दो आरोपियों को दोषी ठहराने और उम्रकैद की सजा सुनाने वाले ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल कर दिया।

कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के सितंबर, 2024 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें दोनों आरोपियों को बरी कर दिया गया था। पीठ ने कहा अक्सर ऐसे मामले देखने को मिलते हैं, जहां मामूली विसंगतियों, विरोधाभासों के आधार पर, उचित संदेह का मानक लागू कर अपराधी को बरी कर दिया जाता है।
जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि, अदालतों को समाज की जमीनी हकीकतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून की मंशा को दबाया न जाए। पीठ ने कहा कि न केवल किसी निर्दोष को उस अपराध के लिए सज़ा नहीं मिलनी चाहिए जो उसने किया ही नहीं, बल्कि किसी भी अपराधी को अनुचित संदेह और प्रक्रिया के दुरुपयोग के आधार पर बरी भी नहीं किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि कभी-कभी पीड़ित खुद को असंवेदनशील हितधारकों से भरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा पाते हैं और कभी-कभी, पीड़ित खुद को मौजूदा कानूनों की प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के साथ संघर्ष में पाते हैं।

मौजूदा मामले में पीठ ने पाया कि 2016 में होली के कुछ महीने बाद, पीड़िता को अस्वस्थता महसूस होने लगी और 1 जुलाई, 2016 को जांच करने पर पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती है। तब उसने खुलासा किया कि लगभग तीन-चार महीने पहले दोनों आरोपियों ने उसके साथ दुष्कर्म किया था। इसके बाद भोजपुर जिले में एक प्राथमिकी दर्ज की गई और अदालत में आरोप पत्र दायर किया गया।

पीठ ने कहा, उचित संदेह से परे के सिद्धांत का मूल आधार यह है कि किसी भी निर्दोष को ऐसे अपराध के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए जो उसने किया ही न हो। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू, जिसके बारे में हम जानते हैं, यह है कि कई बार इस सिद्धांत के गलत इस्तेमाल के कारण, वास्तविक अपराधी कानून के शिकंजे से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं।
ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपियों को दुष्कर्म के अपराध और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) के प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में, हाईकोर्ट ने अभियोजन के मामले में कमियां पाते हुए कहा कि अभियोजन उनके खिलाफ मामला साबित करने में असमर्थ रहा। पीड़िता की उम्र से संबंधित मुद्दे पर विचार करते हुए, शीर्ष अदालत ने कहा, अदालतों को पीड़ितों, खासकर देश के दूरदराज के इलाकों में रहने वाली पीड़ितों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति सजग रहना चाहिए।

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