प्रयागराज में एक ऐसा मंदीर जहाँ होती है पालने की पुजा –

✍️रोहित नंदन मिश्र
प्रयागराज:- उत्तर प्रदेश के प्रयागराज ऐसा मंदिर जहाँ किसी भी देवी, देवताओं की मूर्ति नही है,वहाँ सिर्फ पालने की पूजा होती है। ये मंदीर प्रयागराज में स्थित हैं।
प्रयागराज नाम का रामचरित मानस में भी उल्लेख है. 15वीं सदी में मुगल सल्तनत के दौरान प्रयागराज का नाम बदल कर इलाहाबाद कर दिया गया था और अब उत्तर प्रदेश सरकार ने इसका नाम फिर से प्रयागराज कर दिया. प्रयाग का अर्थ है नदियों का ‘संगम’ यानी जहां नदियों की संगम होता हो वो स्थान प्रयागराज कहलाता है.ये माता का शक्तिपीठ है इसलिए यहां नवरात्रि का भव्य मेला लगता है. नौ दिनों तक मां के नौ स्वरूपों की पूजा होती है और कई तरह के आयोजन किए जाते हैं. इसके अलावा मंदिर परिसर के बाहर सोमवार और शुक्रवार को भी मेला लगता है जिसे माता का मेला कहते हैं.ऐसा बताया जाता है कि जहां अलोपी देवी मंदिर है। वहां पर मां सती के दाहिने हाथ का पंजा गिरा था। गिरने के बाद वह विलुप्त हो गया था जिसके कारण मंदिर का नाम अलोप शंकरी पड़ा।
स्थानीय लोग इसे अलोपी देवी मंदिर के नाम से जानते हैं।इस मंदिर का नाम अलोपी देवी मंदिर है।मंदिर में किसी मूर्ति की बजाय एक लकड़ी के पालने यानी डोली की पूजा होती है. इस मंदिर को 51 शक्तिपीठों में से एक कहा जाता है. मंदिर प्रांगण में एक कुंड के ऊपर चांदी का चबूतरा है जिस पर पालना लटक रहा है. यहां भक्त रक्षा सूत्र बांधकर देवी से सुरक्षा की मनोकामना मांगते हैं।
ऐसा बताया जाता है कि इस देवी के नाम पर इस मोहल्ले का नाम अलोपी बाग पड़ा। मंदिर में अधिक संख्या में श्रद्धालु आते हैं।नवरात्र के दौरान यहां मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि जिस इंसान की मनोकामना पूरी हो जाती है,श्रद्धालु मां को हलवा पूड़ी का भोग अर्पित करता है और कड़ाही भी चढ़ाते हैं। मंदिर में माता के अलोप रूप यानी माता अलोपशंकरी के रूप में पूजा जाता है। भक्त मंदिर की परिक्रमा नंगे पैर करते हैं। मान्यता है कि यहां परिक्रमा करने से लोगों की मनोकामना पूरी हो जाती है।वैसे इस पालने वाली माता को लेकर कई सारी कथाएं प्रचलित हैं।
किंवदन्ती के अनुसार मां सती की कलाई इसी स्थान पर गिरी थी। यह प्रसिद्ध शक्ति पीठ है और इस कुंड के जल को चमत्कारिक शक्तियों वाला माना जाता है।अलोपी देवी के मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। मान्यता है कि यहाँ कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधकर मन्नत माँगने वाले भक्तों की हर कामना पूरी होती है और हाथ में धागा बंधे रहने तक देवी उनकी रक्षा करती हैं। नवरात्रों में यहां मां का श्रृंगार तो नहीं होता, परंतु उनके स्वरूपों का पाठ किया जाता है। नवरात्रि में देवी के दर्शनों के लिए भक्तजन घंटों लाइन में खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। सोमवार व शुक्रवार को यहाँ विशाल मेला लगता है। मंदिर में स्थित कुंड से ही जल लेकर भक्त पालने पर चढ़ाते हैं और देवी का आशीर्वाद पाने के लिए उनकी परिक्रमा करते हैं। यहां भक्त कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँध कर माता से मन्नत भी माँगते हैं।
इस मंदिर को देवी के 51 शक्तिपीठो में से एक की मान्यता प्राप्त है. कहा जाता है। मान्यता है कि जब देवी सती अपने पिता दक्ष के घर बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गई तो वहां उनका और उनके पति महादेव का अपमान हुआ. इससे निराश होकर देवी सती यज्ञ की अग्नि में कूद गई और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए. शिव ने क्रोधित होकर देवी सती के मृत शरीर को हाथों में लेकर तांडव करना आरंभ कर दिया. तांडव से दुनिया नष्ट ना हो जाए, इस वजह से भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाकर सती के शरीर के टुकड़े कर दिए. देवी के शरीर के अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए.
अलोप का अर्थ गायब और शंकरी मां पार्वती को ही कहा जाता है. मंदिर को ललिता मंदिर और महादेवेश्वरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. ललिता भी पार्वती मां का ही नाम है और महादेवेश्वरी का मतलब हुआ महादेव की पत्नी यानी मां पार्वती. प्रयागराज के जिस इलाके अलोपीबाग में ये शक्तिपीठ मौजूद है, उसका नाम भी इसी मंदिर की प्रसिद्धि के नाम पर रखा गया है. ये शक्तिपीठ प्रयागराज में मशहूर संगम तट (जहां गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का मेल होता है) के काफी करीब है. प्रयाग राज को संगम नगरी और तीर्थराज भी कहा जाता है.
एक दूसरी कथा भी प्रचलित है. इसके अनुसार पहले यहां घना जंगल था और यहां से गुजरने वालों को डाकू लूट लेते थे. एक दुल्हन को डोली में लेकर एक बारात यहां से गुजर रही थी कि डाकुओं ने हमला कर दिया. डाकुओं ने बारात में शामिल सभी लोगों को लूट लिया लेकिन जब वो दुल्हन को लूटने डोली के पास पहुंचे तो डोली खाली थी और दुल्हन विलुप्त हो चुकी थी. लोगों ने विलुप्त होने वाली नई दुल्हन को मां भगवती का अवतार माना और इसी स्थान पर देवी की डोली की पूजा होने लगी।
मंदिर का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं कहा जाता है. कहते हैं कि मराठा राज के महान योद्धा श्रीनाथ महादजी शिंदे ने 1772 ईस्वी में प्रयागराज में जब अल्प प्रवास किया तो उस दौरान महारानी बैजाबाई सिंधिया के निवेदन पर इस मंदिर को बनवाया गया था. मंदिर को बनवाने के साथ साथ महादजी शिंदे ने प्रयागराज के संगम तटों की मरम्मत भी करवाई और इस इलाके का नवीनीकरण भी करवाया. यहां पहले एक छोटा सा स्थानीय मंदिर था जिसमें झूला लटकता था. बाद में इसकी व्यवस्था श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी ने संभाल ली. ये अखाड़ा दारागंज का अखाड़ा कहा जाता है और मंदिर की देखरेख इसी के जिम्मे है.