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हिंदी दिवस पर एक बौद्धिक निबंध

 

                   संजय पराते

 

14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में अपनाने का निर्णय लिया था। इस दिन की याद में हम पूरे देश में हिंदी दिवस मनाते हैं। हर साल की तरह इस साल भी 14 सितंबर को पूरे देश में हिंदी दिवस उसी तरह की धूमधाम से मनाया गया, जैसे हिंदू दिवाली और होली का त्यौहार मनाते हैं। दिवाली में पटाखे फोड़े जाते हैं और होली में चेहरे बिगाड़े जाते हैं। हिंदी दिवस पर हम भारतीयों ने ये दोनों काम बखूबी किए, और हिंदी में किया। इतने जतन से किया कि अंग्रेजी, चीनी, फ्रेंच जैसी विदेशी भाषा तो क्या, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगला जैसी भारतीय भाषाओं को भी अपने होने पर शर्म लगने लगी। इससे हिंदी की महत्ता स्थापित हुई।

 

वैसे इतनी झंझट पालने की भी जरूरत नहीं पड़ती, यदि हमारी संविधान सभा थोड़ा अक्ल से काम लेती और 1949 में ही हिंदी को राजभाषा के बजाए राष्ट्रभाषा घोषित कर देती। यदि ऐसा हो जाता, तो राष्ट्रमाता के साथ ही हमको राष्ट्रभाषा की लड़ाई न लड़नी पड़ती। हम तो चाहते हैं कि राष्ट्रपिता के स्थान पर सरकार यदि बापू की जगह सांड को बैठा दें, तो राष्ट्रमाता के लिए हमको लड़ाई लड़नी ही नहीं पड़ेगी। भला बताईए, राष्ट्रपिता के बाजू में राष्ट्रमाता नहीं, तो और कौन बैठेगी? तब हम पूरी ताकत से, तन-मन-धन से, हिंदी की लड़ाई लड़ सकेंगे, निज भाषा के सम्मान के लिए न्यौछावर होने का सुख भोग सकेंगे। आजादी के बाद कांग्रेस-गांधी-नेहरू ने जिसे न होने देने की जो साजिश रची थी, अमृतकाल में उस साजिश को नाकाम करके हिंदी को सभी भाषाओं का सिरमौर बनाने का दिन देखना शायद हमारे ही किस्मत में नसीब है। इस काम के बाद हम अमृतकाल के जयकारे लगाते हुए 2047 के स्वर्णकाल की ओर तेजी से कुलांचे भर सकते हैं। न सही 2025 और 26, साल 2047 को तो हम हिंदू राष्ट्र दिवस मनाने का सपना पूरा कर सकते हैं।

 

वैसे भी हमारा नारा है : हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान। इससे हिंदी का हिंदुओं से संबंध स्थापित होता है। जिस देश में हिंदू बहुमत में हो, उस देश में हिंदी नहीं, तो क्या उर्दू या तमिल राष्ट्रभाषा बनेगी? हमारा देश 500 साल तक मुस्लिम आक्रांताओं के हमलों का शिकार रहा है। मुस्लिमों ने हिंदुओं पर हमला किया और उर्दू ने हिंदी पर। महाषड़यंत्र तो यह था कि न हिंदू बचे, न हिन्दी जीवित रहे। लेकिन यह सनातन की ताकत थी कि हिन्दू बचे और अपार बहुमत में है। हमें इसका गर्व है। हम यह कहने की स्थिति में है कि गर्व से कहो, हम हिंदू हैं। लेकिन ऐसा ही गर्व हम हिंदी के लिए नहीं कर सकते। हिंदी मुस्लिम आक्रांताओं की मार से कराह रही है। 10 शब्दों का एक हिंदी वाक्य बोलो, तो उर्दू के चार शब्द ठूंसे चले आते हैं। पिछले ही दिनों हमारे हिंदू हृदय सम्राट योगीजी ने विधानसभा में उर्दू के खिलाफ हिंदी में बयान दिया था। मियां तो मियां, भाई लोगों ने भी गिन-गिनकर बता दिया कि उनके बयान में उर्दू के कितने शब्द थे। दूसरे दिन योगीजी पानी-पानी थे, उनको कहीं जल का सहारा भी नहीं मिला। यह हमारे सम्राट की छीछालेदारी नहीं, हिंदी की दुर्दशा का प्रमाण है — सकल दुर्दशा का। हमारे सम्राट यदि बादशाह होते, तो ऐसी छीछालेदारी नहीं होती।

 

इसलिए यदि 2047 में हिंदू राष्ट्र दिवस मनाना है, तो हिंदी को मुस्लिम आक्रांताओं की उर्दू जुबान से मुक्त करना होगा, जो हिंदी में भरमार ठूंसे पड़े हैं और रोज 500 साल की गुलामी की याद दिलाते हैं। वैसे तो हिंदी में अंग्रेजी के भी शब्द हैं, लेकिन हमारा कभी अंग्रेजों से बैर रहा नहीं, सो अंग्रेजी से भी नहीं है। अब बताईए, रेल जैसे दो अक्षरों के छोटे और सहज जुबानी शब्द को छोड़कर कोई उसे लौह पथगामिनी क्यों कहेगा? क्या हमारी मति मारी गई थी, जो अंग्रेजों से टकराते? आज भी हम क्या खाकर अंग्रेजी से टकराएंगे? इन अंग्रेजों का बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने हमें मुस्लिम आक्रांताओं से मुक्त करवाया। हम तो चाहते थे कि उनके इस उपकार के बदले पूरी जिंदगी, सकल धरा के रहते, उनकी सेवा करें। लेकिन केवल चाहने से क्या होता है? राम ने कभी चाहा था कि सीता माता का हरण हो जाएं? लेकिन हुआ, वह भी रावण के हाथों। हमने कभी चाहा था कि अंग्रेज यहां से चले जाएं, लेकिन उनको जाना पड़ा तो केवल कांग्रेस और कम्युनिस्टों के कारण।

 

अब इस कसक से भी पीछा छुड़ाने का समय आ गया है। अमृतकाल में हम देश की बागडोर फिर से उन्हें सौंप सकते हैं। एकदम झटके से न सही, धीरे-धीरे ही सही। व्यापार के बहाने ही सही, व्यापार समझौते के बहाने ही सही। नाराज ट्रंप धीरे-धीरे ही सही, फिर खुश हो रहे हैं, दोस्ती के बयान दे रहे हैं। मोदीजी की चली तो वे यहां आयेंगे, जल्दी से जल्दी आयेंगे, अपनी खड़ाऊँ मोदीजी को पहनाकर अमेरिका से ही हिंदुस्तान पर राज करेंगे। हिंदुस्तान पर राज करने का सपना कईयों ने देखा था, ऐसा इतिहास बताता है। लेकिन मौका कुछ को ही मिला। मुगलों को 500 सालों तक राज करने का मौका तो मिला, लेकिन रह गए यहीं के होकर। जहां से आए थे, वहां जाने का नाम तक नहीं लिया। यहां का सामान, माल और दौलत वहां ले जाना ही भूल गए। फिर अंग्रेज आए 200 सालों के लिए। व्यापारी बनकर आए थे, मुनाफा कमाने के लिए यहां राज भी किया। लेकिन उनके खून में व्यापार था, सो यहां का सस्ता माल वहां भरते रहे, वहां का माल यहां लाकर महंगा बेचते रहे। वहां से आए थे, तन-मन-धन से वहीं के रहे। कमीनापन नहीं छोड़ा, सो कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने भी उन्हें नहीं छोड़ा। 200 सालों में ही बोरिया-बिस्तर समेटकर जाना पड़ा।

 

अमृतकाल में हम अब फिर उन्हें बुलाएंगे। कहेंगे कि तुम्हारे खून में व्यापार है और मोदीजी के खून में डंके की चोट पर व्यापार है। दोनों मिलकर खून का इतना व्यापार कर सकते हैं कि व्यापार करते-करते ही दोनों खूनी व्यापारी बन जाएं। भारत खूनाखून हो सकता है। भारत जितना खूनाखून होगा, कॉरपोरेट व्यापार उतना ही चमकेगा।

 

तब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था : तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा। आज मोदीजी की पुकार है : तुम मुझे व्यापार दो, मैं तुम्हे खूनाखून भारत दूंगा। भारत जितना खूनाखून होगा, हिंदी भी उतनी ही मजबूत बनेगी। आज हिंदी व्यापार की भाषा नहीं है, इसलिए हिंदी कमजोर है। हिंदी को व्यापार की भाषा बनाओ, देखो हिन्दी कितनी जल्दी और कैसी तरक्की करती है। आसमान में कुलांचे भरते हुए न मिले, तो कहना!

 

इसकी शुरुआत हो चुकी है। हिंदी न सही, हिंदी दिवस को तो हमने व्यापार बना ही लिया है। इस दिन के लिए बड़े-बड़े सरकारी फंड आबंटित हो रहे हैं, उन्हें ठिकाने लगाने के लिए बड़े-बड़े समारोह हो रहे हैं। दूसरी भाषाओं को गरियाया जा रहा है। कोई आक्रांताओं की भाषा है, कोई अनार्य द्रविडों की। हिंदी में हिंदू होने का गर्वभाव भरा जा रहा है। हिंदू होने के गर्वभाव से भरे हिंदू हिंदी की जय पताका लिए हिंदी में सांस्कृतिक जागरण कर रहे हैं। चारों ओर राष्ट्रवाद का माहौल है। प्रधानमंत्री 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड को खोज रहे हैं, तो किसी से और कुछ नहीं हुआ, तो अपनी मां-बहन का ही छिद्रान्वेषण कर इस सांस्कृतिक यज्ञ में स्वाहा कर रहा है। अहा, क्या माहौल है!! तुलसी और कबीर के साथ रहीम और रसखान, राही मासूम रज़ा, शानी और शकील बदायूंनी से लेकर अब्दुल बिस्मिल्लाह, इकबाल और टैगोर तक — सभी सड़कों पर खड़े होकर इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नजारे को भौंचक होकर देख रहे हैं। आज उन्हें हिंदुत्व की ताकत समझ में आ रही होगी कि गंगा-जमुनी तहजीब पर वह कितनी भारी है।

 

हिंदी की असली ताकत हिंदुत्व ही है। हिंदुत्व है, तो हिंदी है। यह बात मायने नहीं रखती कि आजादी के बाद से आज तक जितने पैसे हमने हिन्दी दिवस के नाम पर उड़ाए हैं, उससे तो हर एक भारतीय को साक्षर किया जा सकता था, निरक्षरता का अभिशाप भारत माता के माथे से मिटाया जा सकता था। स्कूल जाने की उम्र वाले हर बच्चे को पहली कक्षा में बैठाया जा सकता था। यह अकादमिक और हिसाबी गणित है, व्यावहारिक नहीं। निरक्षरता मिटाने से, सबको पढ़ने-लिखने का मौका देने से, क्या हिंदुत्व का भला हो सकता है? जितनी निरक्षरता रहेगी, शिक्षा से वंचित लोग रहेंगे, हिंदुत्व का उतना ही भला होगा। तभी हिंदुत्व की कांवड़ ढोने वाले लोगों का जमावड़ा मिलेगा। शिक्षा और साक्षरता लोगों को सनातन से दूर करते हैं। यह हिंदुत्व के लिए घातक है।

 

हम सभी लोगों को प्रण लेना चाहिए कि हमें शिक्षा मिले या न मिले, बेरोजगारी दूर हो या न हो, महंगाई कम हो या न हो, हिंदुत्व का झंडा उठाए रखेंगे। हिंदुत्व ही नहीं बचेगा, तो हिंदू होने का क्या मतलब और क्या मतलब हिंदी-हिंदी करने का। यह तो सियार जैसे ‘हुआँ-हुआँ’ करना हुआ। इसलिए हिंदी दिवस पर हमें प्रण करना चाहिए कि हिंदी को शुद्ध हिंदुओं की भाषा बनायेंगे, गैर-विधर्मियों पर इसे बोलने को प्रतिबंध लगाएंगे, सहधर्मियों को यदि हिंदी नहीं आती, तो उसे ठोककर सिखाएंगे, केवल थोपने से काम नहीं चलेगा। ठीक वैसे ही, जैसे हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने का अभियान चल रहा है, मौलवी बनाने वाली उर्दू को खोज-खोजकर हिंदी से बाहर करेंगे और उसे पाकिस्तान का रास्ता दिखाएंगे। पाकिस्तान से आए सभी हिंदुओं को अपने यहां बसाएंगे और उनकी उर्दू जुबान को काट-तराशकर हिंदी करेंगे। अपने इस छोटे-से जीवन में हिंदुत्व के लिए इतना भी नहीं कर पाए, तो हमारी देशभक्ति को लानत है।

 

हिंदी की इतनी हिंदी करने के बाद भी इस निबंध में कम-से-कम 125 लफ्ज़ उर्दू के हैं, उसके लिए मैं अपने आपको लानत भेजता हूं। अंग्रेजी के कुछ वर्ड्स भी आए होंगे, लेकिन वह चलेगा। आजकल ट्रंप-मोदी भाई-भाई का जमाना जो है। वैसे भी अंग्रेज और अमेरिकी शासकों को हमने अपना दुश्मन कभी नहीं माना था, भले ही वे हमसे दुश्मनों सरीखा बर्ताव करते रहे हो।

 

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