धर्म

सात्त्विक ईर्ष्या का क्या अर्थ है ?

ईर्ष्या की वृत्ति के साथ यदि कुटिलता की वृत्ति मिल जाय, तो इसमें निःसन्देह वह कोढ़ में खाज जैसी ही बड़ी भयावह तथा असाध्य स्थिति होगी। कैकेयीजी कुटिल तो बिल्कुल भी नहीं हैं। उनमें ममता है, सात्त्विक ईर्ष्या भी है, परन्तु उनका स्वभाव सरल है, लेकिन अंत में वे जिसके वश में हो गयीं, वह मंथरा तो “कोटि कुटिलमणि” है। उसने अपनी कुटिलता को कैकेयीजी के अन्तःकरण में पैठा दिया। कैकेयीजी के अन्तःकरण में कहीं न कहीं छिपी हुई सात्त्विक ईर्ष्या की वृत्ति थी, जिसका ज्ञान स्वयं कैकेयीजी को भी न था, परन्तु इस कुटिलता ने उनके अत्यन्त निकट रहकर उनके अन्तःकरण में झांककर देख लिया था कि वहाँ एक कोने में ईर्ष्या दबी हुई है। यद्यपि वह ईर्ष्या सात्विक थी और उसे कोई बहुत बड़ा दोष नहीं माना जाता, लेकिन मंथरा निराश नहीं हुई। उसने इस सात्त्विक ईर्ष्या में भी अपनी कुटिलता का विष घोलकर उसे विषाक्त कर दिया, उसका दुरुपयोग किया। मंथरा ने आकर जब कैकेयी को यह समाचार दिया कि कल राम को राज्य दिया जा रहा है, तो कैकेयीजी प्रसन्न हो गयीं। बोलीं कि इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और क्या होगी ? तुमने यह सुन्दर समाचार सुनाया, ‘बोलो क्या चाहती हो ? आज तुम जो माँगोगी, वही दूंगी।’ मंथरा को तो इस पर निराश हो जाना था, परन्तु वह निराश नहीं हुई। उसने कैकेयीजी से पूछ लिया, “क्या राम को आप इतना चाहती हैं ?” कैकेयीजी ने बड़े उत्साह पूर्वक कहा, “मंथरा ! मैं राम को इतना चाहती हूँ कि पूजा करने के बाद ब्रह्मा से प्रार्थना करती हूँ, वर माँगती हूँ —
*जौं बिधि जनमु देहि करि छोहू।*
*होहूँ राम सिय पूत पतोहू।।* २/१४/७
अगर ब्रह्मा मुझे पुनः जन्म दें, तो राम मेरे पुत्र और सीता मेरी बहू रहें। सुनने में यह बात कितनी सीधी-सादी एवं भावुकता भरी प्रतीत होती है, परन्तु यदि आप ध्यान से देखें तो इस भावुकता के मूल में एक उत्कृष्ट प्रकार की ईर्ष्या विद्यमान है। मंथरा ने पूछा था कि आप राम को इतना क्यों चाहती हैं ? उन्होंने कहा —
*कौसल्या सम सब महतारी।*
*रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।*
*मो पर करहिं सनेह बिसेषी।* २८/१४/४-६
राम सभी माताओं से प्रेम करते हैं, पर मुझे सबसे अधिक चाहते हैं । परिणाम क्या हुआ ? मंथरा प्रसन्न हो गयी । कैंकेयी की माँग है कि राम भले ही सबसे समान रूप से प्रेम करें, पर मुझे सबसे अधिक चाहें ! मंथरा ने कैकेयीजी से पूछा कि आपको यह कैसे पता चला कि राम आपको अधिक चाहते हैं ? कैकेयीजी ने तुरन्त कहा —
*मैं करि प्रीति परीछा देखी।* २/१४/६
मैंने परीक्षा करके देखा है। मंथरा ने कहा कि आप बिल्कुल ठीक कहती हैं, जब आपने परीक्षा ली थी तब वे सचमुच आपसे सर्वाधिक प्रेम करते थे। अब क्या हो गया है ? अब तो बात बिल्कुल बदल गयी है। एक बार कभी आपने परीक्षा ली थी, लेकिन वह पुरानी बात है। राम अब वे राम नहीं रह गये। यद्यपि बात सत्य नहीं है, पर मंथरा ऐसी युक्ति तथा तर्क के सहारे झूठ और सत्य को एक किये दे रही है कि उसकी चाल समझ पाना कठिन है। यही मंथरा की चारित्रिक कुटिलता है और यहीं पर उसने कैकेयी के अन्तःकरण में छिपी हुई सात्त्विक ईर्ष्या के साथ अपनी इस दुष्टतापूर्ण कुटिलता को मिलाकर एक कर दिया है।
सात्त्विक ईर्ष्या का क्या अर्थ है ? कैकेयीजी जो कहती हैं कि अगले जन्म में राम मेरा पुत्र और सीता मेरी बहू बने, तो इस भावना के मूल में क्या है ? मंथरा पूछती है कि जब आप स्वयं कह रही हैं कि राम अपनी माँ से भी अधिक मुझे चाहते हैं, तो फिर आप यह क्यों चाहती हैं कि राम मेरे पुत्र बनें। आपके पुत्र होकर राम किसी अन्य को आपसे अधिक चाहें, यह क्या आप सहन कर सकेंगी ? आपको तो इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए कि राम आपको सबसे अधिक सम्मान देते हैं। कैकेयीजी के अन्तःकरण में छिपी हुई एक सुक्ष्म ईर्ष्या की वृत्ति थी। उनके मन से अगर कोई पूछे तो वह यही कहेंगी कि हाँ ! यह बिल्कुल सच है कि राम मुझे सबसे अधिक चाहते हैं, मैं भी राम को बहुत चाहती हूँ, किन्तु राम को मेरा बेटा कोई नहीं कहता, सब तो उन्हें कौसल्या का ही बेटा कहते हैं। यही है वह सात्त्विक ईर्ष्या। यदि लोग राम को मेरा बेटा कहते, तो कितना अच्छा होता ! बस, इतनी सी बात थी, जो एक सात्त्विक भावना से जुड़ी हुई है, परन्तु मंथरा की कुटिलता ने उनके भीतर उस सात्त्विक ईर्ष्या को दूषित करके एक दुष्ट ईर्ष्या में रूपान्तरित कर दिया। मंथरा ने कैकेयी के अन्तःकरण में ईर्ष्या जगाने के लिए कहा कि राम आपको पहले बहुत चाहते थे पर अब बदल गये हैं —
*रहा प्रथम अब ते दिन बीते।* २/१६/८६
इसका उत्तर भगवान ने चित्रकूट में दिया । जब तीनों माताएँ आयीं, तो मर्यादा के क्रम से उचित यह होता कि वे सबसे पहले माता कौसल्या को प्रणाम करते, पर तीनों माताओं को देखकर भगवान राम ने सबसे पहले प्रणाम किसे किया ? किससे मिले ?
*प्रथम राम भेंटी कैकेई।* २/२४३/७
सबसे पहले वे कैकेयीजी के पास गये, प्रणाम किया और जब उनके हृदय से लग गये, तो कैकेयीजी की आँखों में ग्लानि के आंसू आ गये। सोचने लगी कि अरे ! उस मंथरा ने मुझे झूठी बातें कहकर बहका दिया था कि राम मुझे अपनी माता से अधिक नहीं चाहते। राम तो आज भी मुझे अपनी माता से अधिक चाहते हैं, अधिक सम्मान देते हैं। एक ओर जहाँ ईर्ष्या को जगाने का उपाय है, तो दूसरी ओर ईर्ष्यावृत्ति को मिटाने का भी उपाय है। एक ओर मंथरा है और दूसरी ओर भगवान राम हैं। भगवान राम की धारणा क्या है? वे चाहते हैं कि अयोध्या का राज्य भरत को मिले । क्यों ? इसलिए कि बड़े को यदि राज्य देकर और बड़ा बनाया जायेगा तो छोटा और अधिक छोटा हो जायेगा। इससे समाज में ईर्ष्या और वैमनस्यता फैलेगी। ऐसी स्थिति में रामराज्य नहीं बनेगा । गुरु वशिष्ठ जब कहते हैं कि “राम ! राजवंश की यह परम्परा है कि जो ज्येष्ठ होता है, वही सिंहासन पर बैठता है।” तो यह सुनकर श्रीराम प्रसन्न नहीं हुए कि यह परम्परा बहुत अच्छी है। वे कहते हैं कि यह परम्परा तो बड़ी घातक है। यदि विचार करके देखें तो वस्तुतः मूल समस्या यही है। यदि यह स्थिति न होती तो वैर-विरोध का अवसर ही न आता। न मंथरा को अवसर मिलता और न कैकेयी को । भगवान राम की मूल धारणा यही है–
*राम प्रताप विषमता खोई।* ७/१९/८
भगवान राम गुरु वशिष्ठ का प्रस्ताव सुनकर उदास भाव से विचार करते हैं —
*जनमे एक संग सब भाई।*
*भोजन सयन केलि लरिकाई।।*
*करनबेध उपबीत बिआहा।*
*संग संग सब भए उछाहा।।*
*बिमल बंस यह अनुचित एकू।*
*बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।* २/९/५-७
अरे ! यह तो बड़ी अनुचित बात है कि राज्य छोटे को न देकर बड़े को दिया जाता है। इसके पीछे तर्क क्या है ? भगवान का तात्पर्य यह है कि बड़ा भाई तो वैसे भी बड़ा है, उसे राज्य दे दिया तो वह और भी बड़ा हो गया। छोटा भाई बेचारा पहले भी छोटा कहलाता था और अब ! जब वह राजा के सामने पहुँचेगा, तो दोहरी हीनता का अनुभव करेगा। इसका परिणाम क्या होगा ? क्या परिवार में, समाज में भाइयों के बीच परस्पर ईर्ष्या की वृत्ति नहीं आती ? *ईर्ष्या केवल शत्रुओं के बीच ही नहीं; बल्कि समाज, परिवार और भाइयों में भी हो जाती है। एक ही परिवार में जन्म लेने वाले और निकट-सम्बन्धियों के मन में भी ईर्ष्या की वृत्ति आ जाती है।*
‘मानस’ में सती की कथा है। एक बार सतीजी अपने पिता के घर गयीं। वहाँ उनकी बहनों ने उनकी ओर व्यंग्यभरी दृष्टि से मुस्कराकर देखा —
*भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता।* १/६२/२
सतीजी तो भगवान शंकर की पत्नी हैं, अतः उनका वेश भी तदनुरूप है, किन्तु उनकी बहनें राजसी ठाट-बाट में थीं। बहनों की व्यंग्य भरी मुस्कान देखकर उन्हें बड़ा क्रोध आया धा —
*जद्यपि जग दारुन दुख नाना।*
*सब तें कठिन जाति अवमाना।।* १/६२/७
उनके मन में ईर्ष्या, प्रतिशोध और क्रोध की वृत्ति जाग उठी और वे तब तक शान्त नहीं हुई, जब तक वे अपने पिता से सम्भव शरीर को जला नहीं डालतीं। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान श्रीराम की इस बात को केवल भावुकता के संदर्भ में नहीं, व्यावहारिक संदर्भ में देखें तो उसका तात्पर्य यह है कि जब हम चारों भाई एक ही स्थिति में पले, खेले, पढ़े तो बड़े को ही राजा बनाकर और बड़ा क्यों बनाना चाहिए ? वह आयु में बड़ा है ही, अब छोटे को ही राज्य देकर बड़ा बनाना चाहिए, जिससे यह बड़े-छोटे का भेद कुछ कम हो। भाई ! ईर्ष्या को मिटाने की सबसे बढ़िया दवा तो यही है। क्योंकि जो बड़ा है, यदि और बड़ा बनने की इच्छा करेगा, चेष्टा करेगा, तो स्वाभाविक ही छोटा और अधिक छोटा हो जायेगा। ऐसी स्थिति में छोटे के मन में ईर्ष्या तो होगी ही। किन्तु बड़े के मन में जब छोटे को बड़ा बनाने की वृत्ति आयेगी, तब ईर्ष्या का प्रश्न ही नहीं उठेगा। भगवान राघवेन्द्र कहते हैं कि भरत यदि राजा हो जायँँ, तो कितना अच्छा हो ! अब कोई यदि पूछे कि महाराज ! बड़े का पद छोटे को देने पर स्थिति क्या होगी ? क्या यह उचित होगा ? भगवान कहते हैं कि बड़ा तो जन्म से ही बड़ा है और छोटा अब पद पाकर बड़ा हो जायेगा तो दोनों बराबर हो गये, दोनों बड़े हो गये । छोटे-बड़े का भेद मिट गया। भेद बढ़ाना उचित है या मिटाना ? किसी ने कहा कि लोग जब सुनेंगे कि भरत राजा हो गये हैं, तो क्या कहेंगे ? भगवान राम ने कहा कि इससे अच्छी और क्या बात होगी ? क्यों ? इसलिए कि अयोध्या का राजा होने पर मुझसे यदि कोई पूछेगा कि आप कौन हैं, तो मैं यही कहूंगा कि मैं अयोध्या का राजा हूँ, लेकिन अयोध्या के सिंहासन पर यदि भरत बैठ जायें और मुझसे कोई परिचय पूछे, तो मैं यही कहूंगा कि मैं अयोध्या के राजा का बड़ा भाई हूँ। फिर राजा होने में बड़प्पन है या राजा के बड़े भाई होने में ? यह तो बड़े से भी बड़ा पद है। किन्तु ऐसा न होकर —
*बिमल बंस यहु अनुचित एकू।*
*बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।* २/८१०/८७
इस विमल वंश में यही एक अनुचित परम्परा है कि छोटे को छोड़कर बड़े को ही राज्य दिया जाता है। भगवान श्रीराम को इस बात का बड़ा पछतावा हो रहा है। गोस्वामीजी भगवान के इस पछतावे को देखकर विभोर हो उठे और कहने लगे —
*प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई।*
कितना सुन्दर है यह प्रभु का पछताना ! कैसी भाषा है गोस्वामीजी की ? क्या पछतावा भी सुन्दर हो सकता है ? बोले कि यह कोई साधारण पछतावा नहीं है, यह तो प्रभु का अत्यन्त सुन्दर पछतावा है। कैसे ? बोले —
*प्रभु सप्रेम पछतानि सुहाई।*
*हरउ भगत मन के कुटिलाई।।* २/११/८
प्रभु का यह सुन्दर पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता का हरण कर लेता है। अभिप्राय यह है कि अगर किसी के मन में दूसरों के प्रति ईर्ष्या और कुटिलता की वृत्ति आ गयी हो तो इस प्रसंग को पढ़कर उसके मन में लज्जा आनी चाहिए कि क्या हम भगवान के भक्त हैं, उनके अनुयायी हैं ? क्या हम भगवान से यह प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं कि छोटे को बड़ा बनाकर भेद मिटायें और ईर्ष्या तथा कुटिलता से मुक्ति पायें ! यहाँ पर मंथरा के प्रसंग में ईर्ष्या का एक अन्य रूप सामने आता है। मंथरा ने कैकेयी के मन में एक बात पैठा दी। उसने कैकेयी से कहा कि आज सुन लीजिए कि आगे क्या होने वाला है ? क्या ? बोली कि राम अब तुम्हें नहीं, अपनी माँ को अधिक चाहते हैं। अब वे सिंहासन पर बैठेंगे और भरत को बंदीगृह में डाल दिया जायेगा —
*भरतु बंदिगृह सेइहहिं।* २/१९
और आपको क्या करना पड़ेगा ? बस, मंथरा ने उन्हें सबसे बुरी लगने वाली बात कह दी। एक कल्पित ईर्ष्या ! जहाँ कुटिलता होती है, वहाँ बिना कारण भी ईर्ष्या उत्पन्न की जा सकती है। उसने कैकेयी से कह दिया —
*जौं सुत सहित करहु सेवकाई।* २/१८/८
आपको अपनी सौत कौसल्या की सेवा करनी पड़ेगी । इस बात की कल्पना मात्र से ही कैकेयी को इतनी चोट लगी कि वे तिलमिला उठीं। मैं और अपनी सौत की सेवा करूँ ? बड़ी विचित्र बात है। छोटे तो अपने बड़े की सेवा करते ही हैं। कैकेयी कह सकती हैं कि इसमें दोष क्या है ? मैं छोटी हूँ, सेवा करनी पड़ी तो कोई बात नहीं है, पर व्यक्ति स्वयं को छोटा मानकर सेवा करना चाहे तो वह प्रसन्नता से सेवा करेगा, पर यदि उसे छोटा बनाकर बलपूर्वक उस पर सेवा लाद दी जाय, तो उसके अन्तःकरण में सामने वाले के बड़प्पन से ईर्ष्या हुए बिना नहीं रहेगी। मंथरा ने जब कैकेयी से कहा कि आपको सौत की सेवा करनी पड़ेगी, तो उन्होंने रोषपूर्ण स्वर में कहा कि अरी मंथरा ! तू यह क्या कह रही है ? तब तो मैं यहाँ से अपने पिता के घर चली जाऊगी —
*नैहर जनमु भरब बरु जाई।*
*जिअत न करबि सवति सेवकाई।।* २/२०/१
मैं अपना सारा जीवन नैहर में बिता दूँगी, पर सौत की सेवा कभी नहीं करूंगी। ईर्ष्या में कुटिलता की वृत्ति मिल गयी। परिणाम क्या हुआ ? गोस्वामीजी ने संकेत देते हुए कहा कि इस ईर्ष्या और कुटिलता के मिलन से प्रतिहिंसा की वृत्ति का जन्म हो गया। प्रतिशोध की वृत्ति उत्पन्न हो गयी —
*जस कौसिलाँ मोर भल ताका।*
*तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।* २/३२/८
कौसल्या ने जैसा मेरा भला सोचा है, मैं उसे उसका सवाया बदला चखाकर दिखा दूँगी कि मुझसे बैर करने का क्या परिणाम होता है ? इस प्रकार एक कल्पित आशंका उत्पन्न करके मंथरा ने कैकेयी के अन्तःकरण में छिपी हुई सात्त्विक ईर्ष्या को जगा दिया, उन्हें भविष्य की काल्पनिक विभीषिका दिखाकर उसकी ईर्ष्या को रजोगुणी ईर्ष्या में परिवर्तित कर दिया और उसमें अपनी कुटिलता को पैठाकर उसे तमोगुणी ईर्ष्या बना दिया, जिससे विरोध, प्रतिशोध, प्रतिहिंसा आदि वृत्तियाँ उत्पन्न हो गर्यीं । उनके अन्तःकरण में स्वयं के प्रति एक श्रेष्ठता और कौसल्या के प्रति एक ईर्ष्या का भाव था, उसे मंथरा की कुटिलता ने रजोगुणी बनाकर भरतजी को राज्य दिलाने की चेष्टा की, किन्तु वह यहीं नहीं रुकी, अन्त में उसने इस ईर्ष्या को तामसी ईर्ष्या में परिवर्तित करके राम को वनवास दिलाया। महाराज दशरथ राम को राज्य देना चाहते थे, परन्तु रामराज्य क्यों नहीं बन पाया ? उसका एक ही कारण है। जब तक यह ईर्ष्या की वृत्ति रहेगी, तब तक रामराज्य नहीं बन पायेगा। आगे चलकर भगवान राम और श्रीभरत के चरित्र के द्वारा इस ईर्ष्यावृत्ति का निदान होता है। भेदभाव जो ईर्ष्या का मूलतत्त्व है, वह न तो श्रीराम के चरित्र में है ; न ही श्रीभरत के चरित्र में। इसलिए इन दोनों चरित्रों के माध्यम से ईर्ष्या रहित एक स्वस्थ समाज की रचना होती है और तब रामराज्य बनता है।

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