पुष्प-वाटिका में भगवान् श्रीराम लता कुंज से प्रकट हुए –

पुष्प-वाटिका में भगवान् श्रीराम लता कुंज से प्रकट हुए, पर श्रीसीताजी तो आँख मूँदकर प्रभु के ध्यान में ही डूबी हुई थीं। सखियों ने बड़ी मीठी भाषा में कहा किः –
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।
भूप किसोर देखि किन लेहू॥ १/२३३/२
यह नहीं कहा कि आप बाहर देखिये! अपितु यह कहा कि हम जानती हैं कि आप पार्वतीजी के ध्यान में इतना डूब गयी हैं, पर उनका ध्यान फिर कर लीजियेगा, अभी तो इन राजकुमारों की ओर देखिये। और देखते ही श्रीकिशोरीजी एकदम विह्वल हो गयीं, भाव रस में तदाकार हो गयीं। तब सखियों को चिन्ता हो गयी कि घर पहुँचने में देर हो रही है। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक बात है।
आगे चलकर धनुष टूटने के बाद जब सखियों ने कहा कि आप श्रीराघवेन्द्र के चरणों में प्रणाम कीजिये तो श्रीसीताजी ने नहीं किया। न करने के पीछे यद्यपि अनेक भाव थे पर एक भाव श्रीकिशोरीजी का वह था कि पुष्प वाटिका में जब मैं नेत्र मूँदे हुए थी तो तुमने बाध्य किया कि देखो और जब मैं देखने में डूब गयी तो तुमने कहा कि अब बाहर निकलो। तुम सोचो कि जिसको देखने में मेरी यह दशा हो गयी उसे अगर मैं छू लूँगी तो क्या दशा होगी? तब तुम्हें फिर से मर्यादा वाली चिन्ता सतावेगी। इसका अभिप्राय है कि जब आप मर्यादा से अनुराग में प्रवेश करेंगे तो उन दोनों स्थितियों में अन्तर होगा कि नहीं? मर्यादा का तात्पर्य है नदी के किनारे बैठकर लोटे से नहाना और प्रीति माने नदी में डूब कर नहाना। जो बेचारे डूबने से डरते हैं वे तो लोटे से ही नहाते हैं। सोचते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि भीतर जायें और डूब जायें। और भई। भक्ति तो डुबाने वाली वृत्ति है। इसलिये स्वाभाविक रूप से मर्यादा-प्रिय व्यक्ति को यह चिन्ता होती है कि इसमें कहीं ऐसा न डूब जायें कि फिर निकल ही न पायें। जो सखियाँ श्रीकिशोरीजी के साथ थीं बड़ी चतुर हैं। वे यह कैसे कहें कि विलम्ब हो रहा है-अब चलिये। यदि कोई अनाड़ी होती तो यह भी कह देती कि इतनी देर हो गयी है, आप क्या कर रही हैं? पर सचमुच वे श्रीसीताजी की सखी होने योग्य थीं। तुरन्त उसमें से एक सखी ने कहा कि-
*पुनि आउब एहि बेरियाँ काली।* १/२३३/६
कल हम फिर इसी समय यहाँ आयेंगी। मानो कल आने की बात कह कर श्रीसीताजी को आश्वासन दे दिया कि कल भी ये पुष्य वाटिका में आयेंगे और कल भी आ जाइयेगा तो पुनः दर्शन हो जायगा इसलिये अब चलना चाहिये। सखी की बात सुनकर जब श्रीसीताजी व्यवहार में आयीं तो-
*भयउ बिलंबु मातु भय मानी।* १/२३३/७
जब बाहर निकलीं तो याद आयी कि माँ को जो समय बताकर आयी थी उससे ज्यादा विलम्ब हो गया। यह सत्य है कि मर्यादा में विलम्ब की अनुभूति स्वभावतः होती है। इसीलिये जब श्रीजानकीजी भीतर से निकल कर बाहर आयीं और चलीं तो तुलसीदासजी ने धर्म तथा भक्ति को जोड़ने वाला एक अनोखा सूत्र दिया।
********शेष कल************
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