वाराणसी
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रामनगर रामलीला; श्री राम जी से हठ करके निषादराज के हठ को मानकर अपने पैरो को पखारने की आज्ञा देना –

 

✍️अजीत उपाध्याय

वाराणसी:-

विश्व प्रसिद्ध रामनगर रामलीला के दसवें दिन का प्रसंग 

मांगी नाव न केवट आना। कहई तुम्हार मरमु मै जाना।।

पद कमल धोई चधाए नाव न नाथ उत रायी चहुं

मोहि राम रावरी आन दशरथ सपथ सब सांची कहों ।।

आज की कथा का आरंभ करने से पहले कहना चाहता हूं की भगवान अपने भक्तों का कितना आदर और प्रेम करते हैं कि एक केवट के हठ को भी मानकर और भक्ति प्रेम में हारकर अपने पैरो को पखारने की आज्ञा दे देते है। धन्य है, जो सागर को पार कराने वाला आज भवसागर को पार कराने वाले को गंगा पार करा रहा है और वाह रे भगवन जो भवसागर को पार करा दे वो एक नदी पार कराने वाले के हठ को भी सरलता से मान लेते हैं।।

 

धन्य है भगवन की लीला, धन्य हैं केवट। आज की लीला का आरंभ निषादराज के आश्रम से होता है जहां मंत्री सुमंत श्री राम जी को महाराज दशरथ का संदेशा सुनाते हुए कहते है कि, यदि अयोध्या वापस नहीं जाते तो देवी सीता को ही वापस लौटने को कहे। तब देवी सीता कहती है कि मै श्री राम के चरणों में ही रहना चाहती हूं।बहुत विनय करने पर भी कोई राम जी को छोड़ना को तैयार नहीं था। तभी लक्ष्मण जी पिता जी के वचनों पर संदेह करते हुए क्रोधित होते है। राम जी सुमंत्र को अपनी सपथ देते हुए कहते है कि आप ये बात पिता जी से मत कहिएगा।सुमंत्र जी को विदा करके राम जी सभी के साथ गंगा किनारे जाते है और पार करने के लिए केवट को बुलाते है यहां केवट और राम जी का मधुर भक्ति प्रेम संवाद होता है। तत्पश्चात सभी गंगा पार करते है केवट उतराई तक नहीं लेता है। गंगा उस पार जो केवट परिवार और मजदूरी की दुहाई दे रहा था वहीं इस पार आते ही कुछ भी न लेने की बात करने लगता है यहां तक कह देता है कि बहुत मजूरी की परंतु आज ही उसका फल मिला। यह सब राम जी ने चरण धूलि का ही प्रताप और कृपा है। केवट प्रसंग को लिखने के लिए शब्द कम पड़ जाएंगे ।मैने संक्षेप में प्रसंग लिख दिया। तत्पश्चात जानकी जी गंगा जी की पूजा करती हैं और सभी भारद्वाज आश्रम जाते है जहां ऋषि सभी का स्वागत करते है। भगवन और भारद्वाज जी के बीच ज्ञान की गंगा बहती हैं। उसके बाद श्री राम वहां से यमुना नदी पार करके चित्रकूट चलने के लिए आगे बढ़ते है। यही से निषाद राज जी वापस लौट जाते है। अब श्री राम जानकी लखन जी आगे बढ़ते है वहां उनकी भेंट जंगल के नगरवासियों से होती है जो उनको देखकर बहुत ही प्रसन्न होते है और आपस में बातें करते है ।कोई केकई को तो कोई महाराज को तो कोई विधाता को दोष देता है। सभी ग्राम वासी महिलाएं बार बार सीता जी पूछती हैं, ये दोनों सुंदर युवक आपके क्या लगते है? सभी ग्राम वासी दर्शन करके भावविभोर हो जाते है तत्पश्चात रामलीला महर्षि वाल्मीकि के पास जाते है । महर्षि और श्री राम जी के बीच जो संवाद होता है उस पर बड़ी सुंदर चौपाई तुलसी दास जी लिखते है। भगवन जब महर्षि से पूछते है मैं कहां रहूं? इसी पर महर्षि जी कहते है,

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।

जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127॥

आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥

हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर है। ऐसे ही वाल्मीकि जी बहुत ही सुंदर सुंदर स्थान कहे है।यदि जिनमे से हम लोग एक भी हो जाय तो भगवान निवास हम सबके हृदय में कर ले। तत्पश्चात बार बार भगवन के पूछने पर महर्षि मंदाकिनी नदी के तट पर चित्रकूट पर निवास करने का आग्रह करते हैं। महर्षि से विदा मांगकर श्री राम परमकुटी बनाकर चित्रकूट निवास करने लगते हैं। यही देवता ,कोल, भील प्रभु की सेवा में रहते है। यही कथा का विश्राम हो जाता है।आज की आरती किसी महात्मा द्वारा होती है।

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