वाराणसी
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रामनगर रामलीला; श्री भरत जी का चित्रकूट से विदा होकर अयोध्यागमन –

 

✍️अजीज उपाध्याय

वाराणसी:-

विश्व प्रसिद्ध रामनगर रामलीला के तेरहवें दिन का प्रसंग –

प्रान-प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।

तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥॥

आज की कथा का आरंभ वशिष्ठ भरत सभा से होता है, जहां वशिष्ठ जी और भरत जी का सवांद होता है। गुरु जी भरत जी से अपने मन की बात श्री राम जी से कहने को कहते है और ये भी कहते है प्रभु धर्म के रूप है वो धर्म को नहीं छोड़ सकते और मेरी मति तुम्हारे भाई प्रेम के कारण कुंठित सी हो गई है। इस पर श्री भरत जी कहते है, कि यह मेरा दुर्भाग्य है कि आप इतने दार्शनिक ज्ञानी कुलगुर होने के कारण भी आप मुझसे ही उपाय पूछ रहे है। तब गुरु जी कहते है कि तुम तीनों भाई वन में रहो और भगवन अयोध्या जाएं । इस मत को सुनते ही भरत ही प्रसन्न हो जाते है और कहते है कि यदि ऐसा हो जाय तो मेरा जन्म सफल हो जाय।तब सभी राम जी के पास जाते है और कहते हैं कि आप कुछ ऐसा करो जिसमें भरत का लाभ हो क्योंकि भरत के प्रेम रूपी धारा में मेरा ज्ञान ठहर नहीं पा रहा हैं तब भरत जी राम जी की आज्ञा लेकर अपनी बात रखते हैं कि आप अयोध्या को जाय और हम तीनो भाई वन को जाएं ।वो बहुत प्रकार से समझाने की कोशिश करते है परंतु राम जी अपने धर्म पर अटल रहते है। भरत जी अपने को बारम्बार दोषी कहते है तब भगवन कहते है कि जगत ईश्वर के अधीन है इसलिए तुम व्यर्थ की ग्लानि करते हो।भरत जी का प्रेम देखकर देवता भी आकाश में घबरा जाते है,परंतु इंद्र जी सभी देवता जनों को कहते है कि सब लोग भरत जी के चरणों में प्रीति करो क्योंकि अब हम सभी का कार्य उनके हाथ में ही है। इस बात से देवतों के गुरु बृहस्पति जी सभी देवता जनों की प्रशंसा करते है कि यह अच्छा भाव तुम लोगो के अंदर उत्पन्न हुआ ।मूल में यही बात है कि यदि भरत जी के चरणों में प्रीति करोगे तो प्रभु श्री राम भी आप सभी पर प्रसन्न होंगे। यहां चित्रकूट में तभी महाराज जनक और सुनैना जी के आने का संदेशा जनक दूत लेकर आते है।

बड़ी सुंदर संवाद जानकदूत जी द्वारा होता है। बड़े प्रेम और सरलता,सहजता और चतुरता से वो अपनी बात सभी के सामने रखते है।महाराजा जनक और सुनैना जी आने की सूचना पाते ही उनका सभी आदर पूर्वक स्वागत करते है। यहां जनक जी राम जी और भरत जी के प्रेम को देखकर भावविभोर होते हैं। इधर कौशल्या जी सुनैना जी से कहती है कि आप महाराज जनक जी से समझा के कहिएगा की भरत जी का हित देखकर ही कोई निर्णय लेंगे। फिर जनक सभा होती है। महारानी सुनैना जी,जनक महाराज जी से कौशल्या जी की कही बात कहती है कि आप ऐसा ही निर्णय लीजिएगा जिसमें भरत जी का कल्याण हो। महाराजा जनक जी कहते है इस समय भरत जी के प्रेम और भक्ति का वर्णन तो ज्ञानी पंडित, देवी देवता आदि भी नही कर सकते है। भरत जी के समान भरत जी है। भरत जी राम जी की बातों की अह्वेलना नही करेंगे और प्रभु तो वही करेंगे जिसमे भरत जी का कल्याण हो इसलिए देवी आप निश्चिंत रहे तब श्री राम जी गुरु वशिष्ठ जी से कहते है सभी माता परिवारजन वन के क्लेश से दुखी है इसलिए आप ऐसा उपाय करे जिसमे सभी को सुख मिले।

तत्पश्चात गुरू वशिष्ठ ,महाराजा जनक, मंत्री सुमंत,भरत जी और शत्रुघ्न जी आदि आपस में सभा करते है। सभी लोग भरत जी को यही समझाकर कहते है आप अपनी बात राम की के समक्ष रखिए वो आपके बात को मानेंगे।इस पर भरत जी कहते है भईया जो कहेंगे वो मैं सिर धर कर करूंगा। वाह रे़! चारो भाइयों का प्रेम। सब एक दूसरे के हित के बारे में ही सोच रहे है। यह दृश्य देखकर आकाश में इन्द्र, देवी सरस्वती जी से अनुरोध करते है कि आप भरत की मती को फेरिए नहीं तो देवताओं का आकाज हुआ तब देवी सरस्वती क्रोधित होकर समझाती हैं कि जो भी अयोध्या में हुआ उसमें राम जी की सहमति थी और आज यदि भरत जी की मती को फेरेंगे तो सर्वनाश हो जाएगा क्योंकि भरत जी राम जी के अनन्य भक्त हैं।भगवान भक्त की हानि कभी नहीं होने देते। सभी देवता भरत जी को प्रणाम करते है । तत्पश्चात भरत जी अपने मन की इच्छा भगवन से बुझाय के कहते है कि आप से जो मैं ढिठाई करके बात कह रहा था उसके लिए मुझे क्षमा करिए और आप जो आज्ञा देंगे मैं वही सिर धर के करूंगा तब रामजी उनको सांत्वना देते कहते है कि हम सभी को पिता का वचन निभाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। उन्होंने अपने प्रण की रक्षा के लिए ही अपने प्राण तक का भी मोह नहीं किए इसलिए तुम वहां प्रजा परिवार को पालो और मैं यहां चौदह वर्ष का वनवास व्यतीत करते ही आऊंगा। यह बात सुनकर सभी अपने ह्रदय में संतोष करते है। सार देखे तो यही है कि भगवान ही सब कुछ करा रहे है यदि आपका सामर्थ्य किसी कार्य पर न हो तो उसे उनके ऊपर ही छोड़कर उनके भरोसे हो जाना चाहिए और प्रेमी अपने प्रियतम की बात रखता है यदि वह अपनी बात ही रखता है तो फिर कैसा प्रेमी। भरत जी ने यही कहा कि मैं बस अपनी बात रख रहा हूं पर स्वामी की बात नहीं देख रहा।अपने प्रेमी की बात ही रखना तो प्रेम नहीं तो फिर तो स्वार्थ ही हो जाएगा ।तत्पश्चात भगवान भरत जी को धर्म नीति का ज्ञान देते हुए उनके प्रति प्रेम व्यक्त करते है। यहीं आज के कथा का विश्राम हो जाता है और आज की आरती निषाद राज जी करते है। 

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