
✍️अजीत उपाध्याय
वाराणसी:-
विश्व प्रसिद्ध ग्यारहवें दिन की रामनगर रामलीला
भरताहिं बिसरवी पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपऊ जानि जिय थकित रहे धरि मौनी।।
आज की कथा बहुत मनोरम हैं भरत जी के प्रेम के आगे गुरु माता सभी का ज्ञान धुमिल हो जाता हैं। भक्ति और प्रेम में जो बल है वो ज्ञान को भी पीछे कर देता हैं। कथा का आरंभ अयोध्या से होता है,जहां ननिहाल से भरत जी शत्रुघ्न जी आते है तभी ककेई उनका स्वागत करती है और भरत जी अयोध्या की यह हालत देखकर बहुत व्याकुल रहते हैं। मां से उन्होंने पहले अयोध्या और राम जी की सुधि पूछते हैं तब महारानी केकयी ने सारा हाल बहुत प्रसन्न मन से सुनाती है। ये सुनकर भरत जी बहुत क्रोधित होकर मां को कुछ कटु वचन बोलते है। तभी वहा मंथरा आती हैं उस देखकर शत्रुघ्न जी बहुत क्रोधित होकर उसके कुबड़ पर मारते हैं परंतु भरत जी के मना कर देने पर उसे छोड़ देते है तत्पश्चात दोनों भाई माता कौशल्या के पास जाते है दोनों माता की हालत देखकर पैरो मै गिर जाते है और माता उनको देखकर बहुत ही भावविभोर होकर आलिंगन करती है। भरत जी रोकर कहते हे माता मुझे राम जी के दर्शन करा दो। वो अपने आप को दोषी बोलते हैं परन्तु माता उनको समझाती है कि ये सब विधाता का कराया हैं। इससे दुख को छोड़कर अपने कर्म को करो। तत्पश्चात दोनों भाई गुरु की आज्ञा से पिता जी का क्रिया कर्म की सभी विधि करते है। दशरथ जी के क्रिया कर्म की विधि रामनगर लीला में दिखाया नहीं जाता बस प्रसंग का पाठ होता है।उसके बाद महल में सभा होती हैं जहां गुरु वशिष्ठ जी भरत जी को उपदेश देते है। महाराज दशरथ जी की मृत्यु का सोच करना व्यर्थ है। उसी प्रकार वशिष्ठ जी बहुत से ऐसे जनों के बारे में बताते है कि कौन सोचनीय है और कौन सोचनीय नही है।
बाबा तुलसी दास जी बहुत ही सुन्दर चौपाई लिखा है,
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥2॥सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥
उस वैश्य का सोच करना चाहिए, जो धनवान होकर भी कंजूस है और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजी की भक्ति करने में कुशल नहीं है। उस शूद्र का सोच करना चाहिए, जो ब्राह्मणों का अपमान करने वाला, बहुत बोलने वाला, मान-बड़ाई चाहने वाला और ज्ञान का घमंड रखने वाला है।सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए, जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय भोग में ही लीन रहता है। उस राजा का सोच करना चाहिए, जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है। तत्पश्चात माता कौशल्या और मंत्री आदि सभी भरत जी को समझाते है की वो सिंघासन पर बैठे पर वो सभी को बोलते है कि मैं बहुत पापी हूं जिसके कारण श्री राम सीता और लक्ष्मण जी वन में गए। मुझे सभी गलत समझते होंगे बस एक मेरे प्रभु है वो मुझे गलत नही समझ सकते। मैं उनका दास हूं इसलिए वो मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे इसलिए मैं राम जी के पास जाऊंगा और उनके चरणों में गिरकर प्रार्थना करूंगा की आप ही अयोध्या के राजा रहे। हम तो आपके दास हैं और हमे आप ही का भरोसा है।ऐसा राम जी के प्रति भरत जी का प्रेम देखकर सभी अयोध्यावासी बहुत ही प्रसन्न होते हैं और कहते हैं भरत जी ऐसे क्यों न हो आप धन्य है। जब कोई अयोध्या वासी किसी दूसरे अयोध्यावासी को चलने के लिए मना करता है तब वह कहता है की अब इस समय भी यदि जिसको घर रहना अच्छा लगे तो वह जग में ठगा गया है और भले ही सब सुख सम्पत्ति भस्म हो जाय सो भस्म हो जाए पर किसी को रुकने को मत कहो तत्पश्चात भरत जी सभी राज्याभिषेक साज को सजा के चल देते है।वो बिना रथ के ही चलने लगते है तो माता कौशल्या के कहने पर फिर रथ से चलते है। लीला सृंगबेरपुर के पास आने पर उनकी भेट निषादराज से होती है ।पहले निषाद राज जी भरत जी पर संदेह करते है परंतु मन में सद विचार करके उनसे प्रेम से मिलते है फिर भरत जी का प्रेम देखकर उनके चरणों में गिर जाते है ।भरतजी रामसखा निषाद जी को आलिंगन करते है ।आकाश से देवता भी प्रशंसा करते हैं कि ये निपट नीच वेद से हीन होने पर भी भरत जी गले लगा लिए।। इसके बाद भरत जी राम जी जहां विश्राम किए थे, उसे देखकर भावविभोर होकर रोने लगते हैं तब निषाद राज जी प्रेमपूर्वक से भरत जी को समझाते हैं। सुबह होते ही सभी गंगा पार करते हुए संगम पर जाते है जहां भरत जी राम जी से मिलने की प्रार्थना करते है तत्पश्चात् भारद्वाज आश्रम को जाते है वहां दोनों के बीच ज्ञान कि गंगा प्रवाहित होती है और आज की कथा का विश्राम हो जाता है। आज की आरती दो होती है एक भरत जी की आरती निषादराज के द्वारा और चित्रकूट पर श्री राम जानकी लक्ष्मण जी की किसी संत महंत ( श्री राम जानकी मंदिर कोनिया सटी)धनुर्धारी जी के द्वारा होती है।