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नागरिक विवादों में एफआईआर दर्ज करना गंभीर चिंता का विषय;उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त;- सुप्रीम कोर्ट

 

 

 दिल्ली/लखनऊ:- देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश की पुलिस व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठाते हुए कड़ी टिप्पणी की है। सोमवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, “उत्तर प्रदेश में कानून का शासन पूरी तरह टूट चुका है। नागरिक विवादों को आपराधिक मामलों में बदलना अस्वीकार्य है।”

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने राज्य के डीजीपी को दो सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है।

सुप्रीम कोर्ट में यह सुनवाई देबू सिंह और दीपक सिंह द्वारा दायर याचिका पर हो रही थी। दोनों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा एफआईआर निरस्त न करने के फैसले को चुनौती दी थी। उन पर गौतमबुद्ध नगर के कारोबारी दीपक बहल के साथ पैसे के विवाद को लेकर IPC की धाराओं 406 (आपराधिक विश्वासघात), 506 (आपराधिक धमकी) और 120B (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।

हालांकि, एक चेक बाउंस केस भी इनके खिलाफ लंबित है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति नहीं जताई और उसे जारी रहने की बात कही।

*न्यायालय की तीखी टिप्पणियां:*

*”कुछ तो अजीब और चौंकाने वाला रोज़ हो रहा है यूपी में।”*

*”सिर्फ पैसे न देना अपराध नहीं हो जाता, ये हास्यास्पद है।”*

*”क्या अब यूपी के वकील भूल गए हैं कि सिविल कोर्ट नाम की भी कोई चीज़ होती है?”*

पीठ ने यह भी कहा कि “यदि नागरिक मुकदमे लंबा समय लेते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि आप एफआईआर दर्ज कर आपराधिक प्रक्रिया चालू कर दें।”

पुलिस को सख्त चेतावनी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नोएडा के सेक्टर-39 थाने के जांच अधिकारी को निर्देश दिया है कि वह गवाह बॉक्स में खड़े होकर यह साबित करें कि कैसे मामला आपराधिक था।
मुख्य न्यायाधीश ने यहां तक कह दिया, “आईओ को सबक सिखाना ज़रूरी है, यह कोई तरीका नहीं है कि आप हर मामले में चार्जशीट ठोक दें।”

*क्या यह एक बड़ा संकेत है?*

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कोई साधारण बात नहीं है। यह उस सिस्टम की पोल खोलती है जहां एक पैसे के लेनदेन को लेकर सिविल मामले को आपराधिक रंग दे दिया जाता है।
यह सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में जड़ जमा चुकी प्रशासनिक लापरवाही और *’क्रिमिनलाइजेशन ऑफ सिविल जस्टिस’* की बड़ी तस्वीर है।

डीजीपी को दो हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट देनी होगी।

नोएडा पुलिस के अधिकारी को ट्रायल कोर्ट में सफाई देनी होगी।

क्रिमिनल केस पर रोक, लेकिन चेक बाउंस केस जारी रहेगा।

*न्यायपालिका की इस टिप्पणी से क्या बदलेगा?*

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह चेतावनी सिर्फ कागजों तक सीमित रहेगी या उत्तर प्रदेश पुलिस और न्यायिक व्यवस्था इसपर आत्ममंथन करेगी? या फिर, जनता को एक और “सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी” की खबर देकर भूल जाने को कह दिया जाएगा?

 

नागरिक विवादों में एफआईआर दर्ज करना गंभीर चिंता का विषय, 

 

दिल्ली/लखनऊ :- देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश की पुलिस व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठाते हुए कड़ी टिप्पणी की है। सोमवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, “उत्तर प्रदेश में कानून का शासन पूरी तरह टूट चुका है। नागरिक विवादों को आपराधिक मामलों में बदलना अस्वीकार्य है।”

 

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने राज्य के डीजीपी को दो सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है।

 

सुप्रीम कोर्ट में यह सुनवाई देबू सिंह और दीपक सिंह द्वारा दायर याचिका पर हो रही थी। दोनों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा एफआईआर निरस्त न करने के फैसले को चुनौती दी थी। उन पर गौतमबुद्ध नगर के कारोबारी दीपक बहल के साथ पैसे के विवाद को लेकर IPC की धाराओं 406 (आपराधिक विश्वासघात), 506 (आपराधिक धमकी) और 120B (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।

 

हालांकि, एक चेक बाउंस केस भी इनके खिलाफ लंबित है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति नहीं जताई और उसे जारी रहने की बात कही।

 

न्यायालय की तीखी टिप्पणियां: –

 

“कुछ तो अजीब और चौंकाने वाला रोज़ हो रहा है यूपी में।”

“सिर्फ पैसे न देना अपराध नहीं हो जाता, ये हास्यास्पद है।”

 

“क्या अब यूपी के वकील भूल गए हैं कि सिविल कोर्ट नाम की भी कोई चीज़ होती है?”

 

पीठ ने यह भी कहा कि “यदि नागरिक मुकदमे लंबा समय लेते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि आप एफआईआर दर्ज कर आपराधिक प्रक्रिया चालू कर दें।”

 

पुलिस को सख्त चेतावनी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नोएडा के सेक्टर-39 थाने के जांच अधिकारी को निर्देश दिया है कि वह गवाह बॉक्स में खड़े होकर यह साबित करें कि कैसे मामला आपराधिक था।

मुख्य न्यायाधीश ने यहां तक कह दिया, “आईओ को सबक सिखाना ज़रूरी है, यह कोई तरीका नहीं है कि आप हर मामले में चार्जशीट ठोक दें।”

 

क्या यह एक बड़ा संकेत है?

 

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कोई साधारण बात नहीं है। यह उस सिस्टम की पोल खोलती है जहां एक पैसे के लेनदेन को लेकर सिविल मामले को आपराधिक रंग दे दिया जाता है।

यह सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में जड़ जमा चुकी प्रशासनिक लापरवाही और *’क्रिमिनलाइजेशन ऑफ सिविल जस्टिस’* की बड़ी तस्वीर है।

 

डीजीपी को दो हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट देनी होगी।

 

नोएडा पुलिस के अधिकारी को ट्रायल कोर्ट में सफाई देनी होगी।

 

क्रिमिनल केस पर रोक, लेकिन चेक बाउंस केस जारी रहेगा।

 

न्यायपालिका की इस टिप्पणी से क्या बदलेगा?

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह चेतावनी सिर्फ कागजों तक सीमित रहेगी या उत्तर प्रदेश पुलिस और न्यायिक व्यवस्था इसपर आत्ममंथन करेगी? या फिर, जनता को एक और “सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी” की खबर देकर भूल जाने को कह दिया जाएगा?

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