ददरी मेले में परंपरा और संस्कृति की चाशनी में डूबी जिलेबी के साथ मेल और मुलाकात,महीने भर बतकही का अड्डा –

बलिया:– उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले का ददरी मेला पहचान जैसा है।एक महीने तक चलने वाले इस लाजवाब और अनूठे मेले की शुरुआत कार्तिक पूर्णिमा से होती है।गंगा स्नान,दान और पूजन के साथ बलिया के आस पास के लोग महर्षि भृगु के मंदिर में जा कर उन्हें जल चढ़ाते हैं।ये भी रिवायत है कि पूर्णिमा के दिन इन कार्यक्रमों के बाद लोग सपरिवार गुड़ की जलेबी या अपनी रुचि से दूसरी मिठाइयां खाते हैं।बहुत से लोगों के लिए जलेबी खाने का ये कार्यक्रम ददरी मेले में ही होता है।
भृगु ही वे ऋषि हैं जिन्होंने विष्णु की छाती पर लात मारी थी। इससे जुड़ी बहुत सी कथाएं लोक में प्रचलित हैं, लेकिन एक बात जो समझ में आती है वो ये कि धार्मिक मान्यता के मुताबिक जगत्पालक विष्णु व्यवस्था के प्रतीक हैं और उन पर चरण प्रहार का ऋषि का फैसला विद्रोह का लगता है कि इसी मिथकीय विद्रोह ने बलिया के पानी को बगावत की धार दे दी। यही वजह है कि बलिया वालों को बागी बलिया कहना सुनना अच्छा लगता है।
ये भी माना जाता है कि इन्ही भृगु के शिष्य दर्दर मुनि ने ददरी मेले की शुरुआत की थी।मान्यता है कि उन्होंने ही अयोध्या से सरयू नदी को यहां लाकर उसका संगम गंगा से कराया था। पारंपरिक तौर पर इस मेले की शुरुआत पशु मेले के साथ ही होता रहा।कोरोना और लंफी रोग के कारण पशुओं का मेले अनियमित हो गया और इस वर्ष भी नहीं लगा। ये पशु मेला किसानों के लिए बहुत फायदेमंद होता था। किसान इसमें अपने पशुओं की खरीद फरोख्त किया करते थे,जिस समय बैलों से खेती होती थी उस समय लोग यहीं से अपने लिए बैल खरीदते और बेचते थे।लंबे समय से खेती में बैलों का इस्तेमाल लगभग बंद जाने के बाद यहां अधिकतर भैस और गाय जैसे दुधारु पशुओं या ढुलाई में काम आने वाले खच्चरों और गधों की खरीद फरोख्त होती रही।कुछेक घोड़ों का भी व्यापार होता था,लेकिन इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं होती थी।
जन सामान्य के लिए ददरी के मेला का आकर्षण यहां आने वाला सर्कस, जादू का खेल, नौटंकी और मीना बाज़ार को लेकर होता है।साथ ही अलग अलग क्षेत्रों में बनाए जाने वाले कपड़ों की दुकाने भी बड़ी संख्या में यहां आती है।वैसे तो किसी भी मेले की तरह ही यहां भी जरूरत की हर छोटी बड़ी चीजें लोगों को एक जगह अपेक्षाकृत रियायती दाम पर मिल जाती हैं।कभी बिहार के आरा, छपरा, बक्सर से लेकर ग़ाज़ीपुर, आज़मगढ़ बनारस जैसी जगहों से भी लोग ददरी मेले में आ कर खरीददारी और मेले का लुत्फ उठाते रहे हैं।
अब तो दूसरी जगहों के मेलों की ही तरह ददरी में भी तरह तरह के फूड स्टॉल लगने लगे हैं,लेकिन यहां पारंपरिक तौर पर गुड़ से बनी जलेबी का ही राज रहा है,जिन लोगों ने अपने छोटेपन में इसका रसीला जायका चखा है, उनके लिए मेले का जायका वही जलेबी ही है। इसके अलावा बलिया में खास तौर से बनने वाली चीनी की मिठास में पगी, मैदे और खोए से गोल- गोल टिकरी का स्वाद भी लोगों को लुभाता है।आकार में ये मिठाई न तो बहुत बड़ी होती है और न छोटी।किसी-किसी को ये चपटा किए गए गुलाब जामुन की तरह लग सकती है। बड़ी ही आसानी से इसके रसिया दो से तीन टिकरी खा कर ही कम या ज्यादा मिठाई खाने के बारे में सोचते हैं।
महिलाओं के लिए खास आकर्षण मेले का मीना बाजार होता है।नाम के मुताबिक ही इसमे उनकी रूचि का सब कुछ मिलता है। चूड़ी, बिंदी, तेल, इत्र और सजने सवंरने का सारा सामान मेले में मिलता है।शादियों का मौसम शुरु होने के ठीक पहले लगने वाले इस मेले में बहुत सारे लोग पहले के समय में अपने बेटे- बेटियों की शादी के लिए भी सामान खरीद कर रख लिया करते थे।
मेले का एक बड़ा हिस्सा मनोरंज का होता है।इसमें मनोरंजन की पारंपरिक विधाएं पूरे दमखम के साथ दिखती है।आम तौर पर सर्कस यहां आता ही है। इसके अलावा नौटंकी, जादू का खेल और मौत का कुआं वगैरह खूब शानदार ढंग से चलता है। गंगा की गोदी में चलने वाले ददरी मेले में अब भी अदब और अदीबों की परंपरा कायम है।यहां कवि सम्मेलन और मुशायरे में देश के दिग्गज कवि और शायर शामिल होते हैं।ध्यान रखने वाली बात है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मेले में हिंदी को लेकर ऐतिहासिक भाषण दिया था जिसे आज भी पढ़ाया और बताया जाता है।आज भी सांस्कृतिक आयोजन भारतेंदु मंच के तहत ही किए जाते हैं।