त्याग ही नहीं, बल्कि जिसके द्वारा* *त्याग किया जाता है, उसे भी त्याग दिया जाय –

।। वचनामृत।।
*त्याग की सर्वोत्कृष्ट स्थिति बताते हुए कहा*
*गया है कि _”येन त्यजसि तत् त्यज।”_ इसका*
*अर्थ है कि त्याग ही नहीं, बल्कि जिसके द्वारा*
*त्याग किया जाता है, उसे भी त्याग दिया जाय।*
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ज्ञानयोग से हनु उनमानजी की लंका यात्रा का श्रीगणेश होता है। ज्ञानयोग में भक्तियोग, भगवान की स्मृति का आश्रय, भगवान के बाण के रूप में निमित्त बनकर वे लंका की ओर प्रस्थान करते हैं। इस यात्रा में जैसे ही वे आगे बढ़े, एक समस्या आ गयी। समुद्र में मैनाक नाम का एक पर्वत छिपा हुआ है। यह सोने का पर्वत है। समुद्र ने मैनाक से कहा कि तुम्हारे मित्र का पुत्र आकाश में जा रहा है, तुम बाहर निकलकर कम से कम उसका स्वागत तो करो —
*जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।*
*तैं मैनाक होहि श्रम हारी।।* ५/०/९
तब मैनाक पर्वत ने ऊपर उठकर हनुमानजी से प्रस्ताव किया कि वे थोड़ा सा विश्राम कर लें और तब आगे को प्रस्थान करें। यहाँ हनुमानजी ने मैनाक पर्वत के साथ जो व्यवहार किया, उसमें बड़े महत्त्व का संकेत है। *कभी-कभी ऐसे व्यक्ति दिखायी देते हैं जिनके जीवन में त्याग तो है, परन्तु त्याग के बावजूद त्याग का अभिमान न हो, ऐसे व्यक्ति बिरले हैं।* जिन्हें धन का लोभ नहीं होता, वे धन देने पर भी स्वीकार नहीं करते, पर उनके मुख से प्राय: ही सुनने में आता है कि मैं तो लाखों को ठोकर मार देता हूँ, मुझे तो करोड़ों की भी परवाह नहीं है। हनुमानजी भी चाहते तो उस सोने के पहाड़ को एक लात मार देते और कह देते कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है। लेकिन हनुमानजी की विलक्षणता क्या है ? *’हनूमान तेहि परसा’* अर्थात हनुमानजी ने तत्काल उसका स्पर्श किया और कहा कि आप मुझे स्मरण दिला रहे हैं आप हमारे पिता के मित्र हैं, आप मेरे लिए पिता के समान पूज्य हैं, श्रद्धा के पात्र हैं, मैं आपका सम्मान करता हूँ, आपका स्पर्श करता हूँ ! इसका अभिप्राय यह है कि *हनुमानजी प्रलोभन से मुक्त तो हैं, पर उनमें अपनी इस निर्लोभता का अहंकार भी नहीं है। वे इन दोनों समस्याओं से मुक्त हैं।* उन्होंने निरहंकार भाव से कहा —
*राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।* ५/१
भगवान के कार्य किये बिना मुझे विश्राम कहाँ मिलेगा ? यह मैनाक-पर्वत प्रलोभन का प्रतीक है। देहाभिमान के समुद्र को पार करते समय पहले प्रलोभन आया। त्याग की सर्वोत्कृष्ट स्थिति बताते हुए कहा गया है कि *येन त्यजसि तत् त्यज।* इसका अर्थ है कि *त्याग ही नहीं, बल्कि जिसके द्वारा त्याग किया जाता है, उसे भी त्याग दिया जाय।* इसी वृत्ति से हनुमानजी ने मैनाक पर्वत से आशीर्वाद पाकर उनसे विदा ली और आगे बढ़े। लोभ के बाद आगे बढ़े तो साधना-पथ की एक के बाद एक समस्याएँ आने लगीं। साधक के जीवन में भाँति-भाँति की अनेक समस्याएँ आती हैं। मैनाक पर्वत से विदा लेकर हनुमानजी ज्योंही आगे बढ़े, एक विशाल सर्पिणी मुंह फैलाकर हनुमानजी के सामने खड़ी हो गयी । हनुमानजी ने जब उसकी ओर देखा तो सर्पिणी ने अपना परिचय देते हुए कहा —
*सुरसा नाम अहिन्ह के माता।*
*पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।*
*आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।*
*सुनत बचन कह पवनकुमारा।।* ५/१/२-३
मैं स्वर्ग से आयी हूँ, मुझे राक्षसी मानकर व्यवहार न करना। हनुमानजी बोले कि स्वर्ग से आयी हो तो ऐसा विरोध का व्यवहार क्यों करती हो ? सुरसा ने कहा – देवताओं ने मुझे विशेष रूप से कहा है कि तुम भूखी हो, तो इस बन्दर को खा लो | यहाँ बड़ी अनोखी बात है। *साधना के मार्ग में, साधक के जीवन में केवल दुर्गुण-दुर्विचार रूपी राक्षस ही बाधा उपस्थित नहीं करते, अपितु कई बार तो सद्गुण भी मार्ग में बाधा बन जाते हैं।* अब यह सुरसा लंका से आयी हुई कोई राक्षसी नहीं है, बल्कि इसे देवताओं ने स्वर्ग से भेजा है। इसका तात्पर्य क्या है ? हनुमानजी देहाभिमान के समुद्र को पार कर रहे हैं। देवताओं ने सोचा कि जरा इसकी सच्चाई तो जाँच लें। सुरसा को उन्होंने परीक्षा के लिए भेज दिया। उसने हनुमानजी से कहा, तुम तो देहाभिमान से ऊपर उठ चुके हो, तुम्हारे मन में तो देह के प्रति *’मैं-मेरा’* का भाव नहीं है और मैं भूखी हूँ। मैं तुम्हें खा लूँ तो इसमें तुम्हें आपत्ति ही क्या है ? मेरा पेट भी भर जायेगा और तुम्हें कोई कष्ट भी नहीं होगा।
सचमुच यह बड़ी कठिन परीक्षा थी। सुरसा हनुमानजी की प्रशंसा करती हुई कहती है – “सचमुच तुम कितने महान हो, देहाभिमान से ऊपर उठ चुके हो, देह के प्रति तुम्हारी रंचमात्र भी अहंता-ममता नहीं है, अब एक महान कार्य और करो। इससे तुम्हारी कीर्ति और भी बढ़ जायेगी।” क्या ? बोली – “इस देह का तो अब तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं है, इससे मेरी भूख मिटा दो। इससे तुम्हारा देहाभिमान से ऊपर उठना सार्थक हो जायगा और तुम्हारी कीर्ति में भी वृद्धि होगी।”
अब यदि कोई व्यक्ति कीर्ति की कामना लेकर अपने जीवन में साधना, तपस्या अथवा सत्कर्म कर रहा हो, तब तो सुरसा का तर्क सही लगता है। प्रशंसा ही उसकी कला है, वह प्रशंसा करके प्राणियों को ग्रास बना लेती है पर हनुमानजी ने इसका बड़ा संतुलित उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि देहाभिमान से मुक्त होने का अर्थ यह तो नहीं है कि व्यक्ति आत्महत्या कर ले। अगर इसी को कसौटी बना लिया जाय, तब तो जितने भी लोग आत्महत्या करते हैं, वे सभी देहाभिमान से ऊपर उठे हुए हैं, क्योंकि वे शरीर को निर्ममता पूर्वक गाड़ी के नीचे डाल देते हैं या देह में आग लगा लेते हैं। हनुमानजी ने कहा कि देहाभिमान से तो मैं मुक्त हूँ, परन्तु जब तक इस देह का सदुपयोग हो सकता है, तब तक मैं इसका सदुपयोग करूँगा और जब उपयोगिता समाप्त हो जाय, तब खा लेना; मुझे कोई आपत्ति न होगी। बोले —
*राम काजु करि फिरि मैं आवौं।*
*सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।*
*तब तव बदन पैठिहउँ आई।*
*सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।* ५/१/४-५
लेकिन सुरसा किसी भी तरह से हनुमानजी को आगे नहीं बढ़ने देती । तब हनुमानजी ने कहा-अच्छा ! लो, खा सको तो खा लो ! यह कहकर उन्होंने अपना शरीर फैलाना शुरू कर दिया और सुरसा के मुख से दूने आकार में खड़े हो गये। सुरसा ने भी अपना मुँह हनुमानजी से दूना फैलाया। कुछ देर तक यह खेल चलता रहा। हनुमानजी चाहते तो इस खेल में भी सुरसा को परास्त कर सकते थे, परन्तु उन्होंने एक सुंदर युक्ति का आश्रय लिया। उन्होंने अपने आकार को तुरन्त समेट लिया और अत्यन्त छोटे बनकर सुरसा के मुँह में घुस गये। सुरसा उन्हें चारों ओर ढूँढ़ती रही और वे सुरसा के मुंह से बाहर आ गये। बोले, “लो, तुम्हारा खाना हो गया न !” हनुमानजी की इस युक्ति से सुरसा संतुष्ट हो गयी।
आगे चलकर हनुमानजी को ऐसे पात्र और भी मिले, जो उन्हें खा जाना चाहते थे। सुरसा के बाद सिंहिका और उसके बाद लंकिनी मिली। वह भी हनुमानजी को खा जाना चाहती थी, परन्तु हनुमानजी ने इन सबके साथ समान व्यवहार नहीं किया, अपितु तीनों से अलग-अलग प्रकार का व्यवहार किया। सिंहिका को तो मारकर उन्होंने पूरी तरह नष्ट कर दिया और लंकिनी पर मुक्के का प्रहार करके उसे अधमरा कर दिया, लेकिन सुरसा को उन्होंने न तो मारकर समाप्त किया और न अधमरा ही किया, बल्कि एक नयी पद्धति से उन्होंने सुरसा पर विजय प्राप्त की।