“तुममें मैंने खुद को पाया”

“तुममें मैंने खुद को पाया”
एक दिन यूं ही बात हुई थी तुमसे,
तुमने खोले थे अपने दिल के कई दरवाज़े,
और मैं… बस चुप सी रही,
कुछ संकोच था, कुछ अनकहे सवाल थे।
उस दिन कोई एहसास ठहरा नहीं,
वक़्त ने फुर्सत न दी,
ना ही दिल ने हिम्मत की।
पर फिर न जाने क्या हुआ,
तुमने कुछ ऐसा छू लिया मुझमें,
कि मैं अपनी ही बनाई सीमाओं को तोड़ने लगी।
बातों का सिलसिला यूं ही चलता गया,
और तुम्हारी हर बात मेरे दिल में उतरती गई।
ना जाने कब तुम ज़रूरी हो गए,
जैसे सांसों में बस गए हो तुम।
हर सुबह तुम्हारे ख्याल से होती,
हर रात तुम्हारे नाम की चुप दुआओं में गुजरती।
तुम वो पहले शख्स बने,
जिसे देख मैं खुद को महफूज़ समझने लगी।
तुममें देखा मैंने अपने पिता की परछाई,
जिसकी मौजूदगी से डर खुद पीछे हट जाता है।
तुम्हारे लहज़े में मां की ममता मिली,
जो हर बात बिन कहे समझ लेती है।
तुम्हारी आंखों में वो सच दिखा,
जिसमें कोई छल, कोई पर्दा नहीं था।
तुम्हारे बांहों में वो भरोसा मिला,
जो एक भाई देता है, चुपचाप, मज़बूती से।
जो बिना कहे ढाल बनकर सामने खड़ा हो जाए,
जिसकी छांव में दुख भी सर झुका ले।
मैंने तुममें पाया वो हर रिश्ता,
जो ज़िंदगी को मुकम्मल करता है।
तुम में देखा मैंने अपना साया,
जो हर मोड़ पर मेरे साथ चलता है।
अब लगता है —
तुम कोई शख्स नहीं,
एक अहसास हो,
एक ठिकाना,
एक ऐसा नाम,
जिसके जुड़ते ही मेरा वजूद पूरा लगता है।
कभी तुमसे दूर जाना न पड़े,
यही दुआ है हर शाम की, हर सहर की।
क्योंकि तुममें मैंने सिर्फ़ प्यार नहीं,
अपना घर देखा है,
अपनी दुनिया देखी है…
और सबसे बढ़कर —
खुद को पाया है।
डॉ माला यादव