राजनीति

क्या 2024 में इंडिया गठबंधन कर पायेगा मोदी का मुकाबला –

प्रकाश मेहरा 

राजनीति संभावनाओं का खेल है। इंडिया के कर्णधार इसी पुराने सिद्धांत के आधार पर चौथी बार मिल जरूर रहे हैं, मगर इस बार उन्होंने पिछली बैठकों की भूलें दोहराई, तो वे अपनी विश्वसनीयता कुछ और गंवा बैठेंगे। उनकी ट्रेन पहले से ही लेट चल रही है और अपना मुकाम हासिल करने के लिए उन्हें कम से कम तिगुनी गति से दौड़ना होगा। क्या वे ऐसा कर सकेंगे ?*

 

क्या अगले मंगलवार को ‘इंडिया ब्लॉक’ भारतीय मतदाताओं के सामने अपनी संरचना और सिद्धांतों का कोई ठोस प्रारूप पेश कर पाएगा ? इस लिहाज से उसकी पिछली तीन बैठकें निराशाजनक साबित हुई हैं। पता नहीं, इस युति के नेता जानते हैं या नहीं कि इस बार वे अगर कोई ठोस एजेंडा पेश करने में कामयाब नहीं रहते हैं, तो उन्हें अगले चुनाव में पहले से ज्यादा बड़ी हार का सामना करना पड़ सकता है। 

 

*वक्त इस वक्त उनके पक्ष में नहीं है।*

 

पिछली 3 दिसंबर को जब हिंदी पट्टी के तीन विधानसभा चुनावों के नतीजे घोषित हुए, तो तमाम चुनाव शास्त्री भौंचक रह गए। भाजपा ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को दरकिनार कर यह चुनाव लड़ा था। पार्टी को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। ये तीनों राज्य पिछले चुनाव में भगवा दल के हाथ से सरक गए थे।

 

भारतीय राजनीति में बरसों बाद किसी सत्तानायक के प्रति मतदाताओं का ऐसा जबरदस्त समर्थन देखने को मिला। इंदिरा गांधी के बाद लोग भूल गए थे कि क्षत्रपों को दरकिनार कर सूबाई चुनावों में महज प्रधानमंत्री के काम और नाम पर भी बहुमत अर्जित किया जा सकता है। यहां में मिजोरम की चर्चा नहीं कर रहा, क्योंकि वहां भाजपा की दावेदारी परंपरागत तौर पर कमजोर थी।

 

*तीन राज्यों में बीजेपी बहुमत*

 

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान के फैसले एक और तथ्य की मुनादी करते हैं। पिछले 10 सालों में ऐसा कई बार हुआ था, जब मतदाताओं ने प्रदेश के लिए एक, तो देश के लिए दूसरी पार्टी का चयन किया। ये तीनों राज्य भी पांच वरस पहले इसी प्रवृत्ति को वल प्रदान करने वाले साबित हुए थे। विधानसभा चुनाव गंवाने के बाद राजस्थान और छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 36 में से 34 सीटें भगवा दल के कब्जे में आ गई थीं। उत्तर और पश्चिम भारत के अन्य राज्यों का भी यही रवैया था। मोदी इसीलिए मई 2019 में पहले से अधिक बेहतर बहुमत के साथ चुने गए थे।

 

भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर बहमत हासिल करने के इस चमत्कार को न केवल दोहराना चाहती है, बल्कि और बेहतर तरीके से उस पर सान चढ़ाना चाहती है। नए मुख्यमन्त्रियों से भाजपा को नुकसान के बजाय लाभ इसलिए मिल सकता है, क्योंकि उनके प्रति जनता के मन में कोई अरुचि नहीं है। ये नई दिल्ली के आदेशों का जस का तस अनुपालन करने में भी कोई संकोच नहीं करेंगे।

 

राजनीति का पुराना दस्तूर है कि जब एक मुख्यमंत्री कई बार सत्ता संभाल चुका होता है, तो उसके दिमाग पर हुकूमत का एक निश्चित तौर-तरीका कब्जा जमा लेता है। नए सोच- विचार और प्रयोग उसे जोखिम नजर आने लगते हैं। इसके उलट पहली बार कामकाज संभाल रहे मुख्यमंत्री बेहिचक कठोर फैसले लेने में कामयाब रहते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, असम के हिमंत विस्वा सरमा और दिल्ली के अरविंद केजरीवाल इसके उदाहरण हैं। इन तीनों ने अपने-अपने राज्य में नई रीति-नीति का सूत्रपात किया।

 

क्या रायपुर, भोपाल और जयपुर में हमें यह प्रवृत्ति पांव पसारती नजर आएगी? इन तीनों स्थानों पर आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होकर प्रधानमंत्री ने जनता को जता दिया कि वह ‘मोदी की गारंटी’ मामले में इन मातहतों पर कड़ी निगरानी रखेंगे।

 

पता नहीं, कांग्रेस के लोग ऐसा सोचते हैं या नहीं, लेकिन उन्हें रेवंत रेड्डी जैसा प्रयोग तीनों हिंदीभाषी राज्यों में करना चाहिए था। इससे चुनाव प्रचार को ताजगी मिलती और जरूरत के अनुरूप निर्णय बदलने में भी संकोच नहीं किया जाता। अनिर्णय और यथास्थितिवाद कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत है। राजस्थान में पिछली बार के सत्तारोहण के पहले से अशोक गहलोत और सचिन पायलट उलझे हुए थे। इस टकराव को दूर नहीं किया जा सका। गहलोत 72 वर्ष के हैं और चुनाव से पहले दावा करते हुए घूम रहे थे- ‘मैं तो मुख्यमंत्री पद छोड़ना चाहता हूं, पर यह पद ही मुझे नहीं छोड़ता।’ ऐसा लगता है कि इस कुरसी ने उनका साथ सदा-सर्वदा के लिए छोड़ दिया है।

 

इसी तरह, कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में 77 वर्षीय कमलनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ा। कमलनाथ सत्ता-विरोधी लहर को भुनाने में बुरी तरह नाकामयाब रहे। चुनाव से कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में भटकते हुए मैंने पाया था कि लोग शिवराज से नाराज नहीं हैं, पर उनमें परिवर्तन की जबरदस्त कामना है। राजनीति में इसे ‘फटीग फैक्टर’ कहते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि अगर कमलनाथ की जगह कोई युवा होता, तो इस प्रवृत्ति का समूचा लाभ उठा पाता ?

 

*वह पार्टी में भी एका स्थापित करने में नाकाम रहे*

 

छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई और भूपेश बघेल का अति-आत्मविश्वास उसे ले डूबा । कांग्रेस इसे समझने में भी असफल रही कि मध्य प्रदेश की परिवर्तन- कामना छत्तीसगढ़ में भी पांव पसार रही है। यह उसकी दोतरफा पराजय है कि एक तरफ, वह बदलाव की लहर को समझी नहीं और दूसरे राज्य में नए सत्तानायक के प्रति ललक को भुना नहीं सकी। भारतीय जनता पार्टी ने नए चेहरों को मौका देकर वही काम किया है, जो कांग्रेस को छह महीने पहले करना चाहिए था।

 

इसका खामियाजा देश की सबसे पुरानी पार्टी को इंडिया ब्लॉक में अपना हिस्सा हासिल करने के मामले में उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस ने शायद सोचा था कि पांच राज्यों के नतीजे उत्साहजनक रहेंगे और वह गठबंधन की नियामक बन सकेगी। अब अपने आकार-प्रकार के कारण यदि वह पिछली कतार में धकेले जाने से बच भी जाती है, तो उसे अन्यों को अपने बराबर खड़ा होने से रोकने का कोई हक नहीं रह गया है। हो सकता है, सहयोगी दल पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से कांग्रेस के लेट-लतीफ रवैये की कैफियत मांग उन्हें सुरक्षात्मक रवैया अपनाने के लिए बाध्य करें। यह अकारण नहीं है कि तमाम सहयोगी 3 दिसंबर से ही आक्रामक हैं। अखिलेश यादव और अन्य पार्टियों के प्रमुख नेताओं ने हिंदी-पट्टी के तीन राज्यों में करारी हार के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी की कथनी-करनी पर प्रश्न उठाए हैं। यह बैठक तभी अपना मुकाम हासिल करेगी, जब कांग्रेस उन सवालों का समुचित जवाब दे सके।

 

*क्या 24 में 400 पार बीजेपी*

 

इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा फिलहाल तीसरी विजय की ओर बढ़ती दिखाई पड़ रही है, लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल है। ‘इंडिया’ के कर्णधार इसी पुराने सिद्धांत के आधार पर चौथी बार मिल जरूर रहे हैं, मगर इस बार उन्होंने पिछली बैठकों की भूलें दोहराई, तो वे अपनी विश्वसनीयता कुछ और गंवा बैठेंगे। उनकी ट्रेन पहले से ही लेट चल रही है और अपना मुकाम हासिल करने के लिए उन्हें कम से कम तिगुनी गति से दौड़ना होगा। क्या वे ऐसा कर सकेंगे ?

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