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काशी में पूरे विधि विधान से शुभ मुहूर्त में श्रावणी उपाकर्म मनाया गया –

वाराणसी:- रक्षाबंधन का पर्व एक ओर जहां भाई-बहन के अटूट रिश्ते को राखी की डोर में बांधता है, वहीं यह वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्मशुद्धि का अवसर भी प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है।

श्रावण पूर्णिमा के पावन दिन जनेऊ बदलने और हाथ में रक्षासूत्र बांधने के साथ साथ किस पवित्र नदी में स्नान करने और दान, जप, तप समेत पूजा का विशेष महत्व है.

सावन पूर्णिमा का महत्व रक्षा बंधन के त्योहार को लेकर तो है ही साथ ही इस दिन का महत्व जनेऊ पहनने वाले ब्राह्मणों के लिए भी है. जिस तरह भाई-बहन रक्षा बंधन के इस त्योहार का इंतजार पूरे साल करते हैं और वैसे ही कुछ ब्राह्मण श्रावणी उपाकर्म का इंतजार उत्साह के साथ करते हैं. ब्राह्मणों के लिए यह पर्व विशेष होता है क्योंकि पूरे एक साल के बाद वे पूरे विधि-विधान के साथ ये अपना जनेऊ बदलते हैं. जनेऊ बदलने के लिए श्रावण पूर्णिमा का दिन अत्यंत ही शुभ और पावन माना जाता है. श्रावणी उपाकर्म आत्मशुद्धि का पर्व माना गया है. जानें श्रावण मास की पूर्णिमा पर पड़ने वाले इस पावन पर्व और पवित्र धागों से बने जनेऊ का धार्मिक महत्व क्या है.

इस दिन को श्रावणी उपाकर्म के रूप में मनाते हैं और यजमानों के लिए कर्मकांड यज्ञ, हवन आदि करने की जगह स्वयं अपनी आत्मशुद्धि के लिए पूजन करते हैं। ओझल होते संस्कारों के इस कठिन समय में जानिए श्रावणी उपाकर्म पर्व का महत्व : –

– यह उपाकर्म द्विज के शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि करता है।

– वैदिक काल से द्विज जाति पवित्र नदियों व तीर्थ के तट पर आत्मशुद्धि का यह उत्सव मनाती आ रही है, पर वर्तमान समय में ब्राह्मण व वैदिक श्रावणी की परंपरा को भूलते जा रहे हैं। इस कर्म में आंतरिक व बाह्य शुद्धि अर्थात् दशविध स्नान गोदूध, गोदही , गोमूत्र,गोमय ( गोबर), गोघृत ,मिट्टी, भस्म, अपामार्ग, दूर्वा, कुशा एवं मंत्रों द्वारा की जाती है। 

– इस कर्म में पंचगव्य महाऔषधि है। श्रावणी में दूध, दही, घृत, (गोबर) गोमय, गोमूत्र प्राशन कर शरीर के अंतःकरण को शुद्ध किया जाता है। 

– इस क्रम में प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी वैदिक विप्रो के साथ विधि पूर्वक श्रावणी उपाकर्म मनाया जिसमे गंगा घाट पर दशविध स्नान के साथ ही ऋषि पूजन,यज्ञोपवीत पूजन किया गया। 

 

श्रावणी उपाकर्म का है विशेष धार्मिक महत्व

वैसे लोग जिनका यज्ञोपवीत संस्कार या जनेऊ संस्कार हो चुका होता है, वे अपना पुराना यज्ञोपवीत या जनेऊ बदलते हैं. इसके लिए सावन महीने की पूर्णिमा के दिन को विशेष शुभ माना जाता है. इस दिन पुराना जनेऊ उतारकर नया धारण किया जाता है. पुराने यज्ञोपवीत को बदलने की यह प्रक्रिया एक शुभ मुहूर्त पर पूरे विधि विधान के साथ संपन्न की जाती है. उत्तर भारत में इसे श्रावणी उपाकर्म जबकि दक्षिण भारत में इसे अबित्तम के नाम से जाना जाता है.

श्रावणी उपाकर्म किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में संपन्न किये जाते हैं. जनेऊ बदलने की विधि में व्यक्ति गोमाता के दूध, उससे बनी दही, घी, गोबर, गोमूत्र और पवित्र कुशा से स्नान करते हैं. उसके बाद पूरे साल भर में किए गए ज्ञात-अज्ञात पापकर्मों का प्रायश्चित करते हैं. फिर ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं जनेऊ पूजन के बाद मंत्रोच्चारण के साथ उसे धारण करते हैं. जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है वहीं ये कार्य करते हैं. अंत में विधि-विधान से यज्ञ संपन्न किया जाता है.

जनेऊ पहनने का मंत्र

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ उतारने का मंत्र

एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।।

क्या होता है जनेऊ –

सनातन धर्म में ‘जनेऊ’ को एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है, जिसे धारण करने वाले व्यक्ति को इससे जुड़े नियमों का पालन करना आवश्यक होता है. सूत से बने जनेऊ में पवित्र तीन धागे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं. इसे सत्व, रज और तम के साथ तीन आश्रमों का भी प्रतीक माना जाता है. हिंदू धर्म इसके बगैर विवाह संस्कार संपन्न नहीं होते हैं।

सनातन परंपरा में नक्षत्रों के नामों से चैत्रादि मासों के नाम ज्योतिष शास्त्र में रखे गए हैैं। उदाहरण के तौर पर चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास वैसे ही श्रवण नक्षत्र से श्रावण मास नियत हुआ है। कालांतर में महर्षि पाणिनि ने -नक्षत्रेण युक्त: काल:- तथा -सास्मिन पौर्णमासी- सूत्र से इसकी पुष्टि की है। इसका अर्थ है कि जिस नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा तिथि हो उसी नक्षत्र से अण् प्रत्यय करके वह मास शब्द बनता है।

इस व्युत्पत्तिपरक अर्थ लेने से सभी श्रावण मास के किए जाने वाले कर्म श्रावणी कर्म ही हैैं। तथापि श्रावणी शब्द उपाकर्म एवं रक्षा बंधन अर्थ में रूढ़ हो गया है। यद्यपि उपाकर्म में रक्षा विधान यानी रक्षा बंधन भी समाहित है। उपाकर्म व राखी बंधन दोनों भिन्न कृत्य हैैं। जनमानस में एकत्व का भ्रम हो जाने से विवाद को अवसर प्राप्त हो जाता है।

 

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