वाराणसी
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काशी का लक्खा मेला की विशेषता – 

✍️रोहित नंदन मिश्र

वाराणसी:– काशी के लक्खा मेलों में शुमार नाटी इमली के भरत मिलाप की कहानी 480 साल पहले मेघा और तुलसी के अनुष्ठान से आरंभ हुई। अस्ताचलगामी भगवान भास्कर भी इस दृश्य को निहारने के लिए अपने रथ के पहियों को थाम लेते हैं। काशी और काशी की जनता यदुकुल के कंधे पर रघुकुल के पांच टन का वजनी पुष्पक विमान अपने माथे पर धरकर मिलन की साक्षी पिछले 480 सालों से बन रही है।

रामलीला समिति के व्यवस्थापक पं. मुकुंद उपाध्याय ने बताया कि मान्यता है कि 479 साल पहले रामभक्त मेघा भगत को प्रभु के सपने में हुए थे।

 

बनारस के यादव बंधुओं का इतिहास तुलसीदास के काल से जुड़ा हुआ है। तुलसीदास ने बनारस के गंगा घाट किनारे रह कर रामचरितमानस तो लिख दी, लेकिन उस दौर में श्रीरामचरितमानस जन-जन के बीच तक कैसे पहुंचे ये बड़ा सवाल था। लिहाजा प्रचार प्रसार करने का बीड़ा तुलसी के समकालीन गुरु भाई मेघाभगत ने उठाया। जाति के अहीर मेघाभगत विशेश्वरगंज स्थित फुटे हनुमान मंदिर के रहने वाले थे। सर्वप्रथम उन्होंने ही काशी में रामलीला मंचन की शुरुआत की। लाटभैरव और चित्रकूट की रामलीला तुलसी के दौर से ही चली आ रही है।

 

काशी राज परिवार भी इस भरत मिलाप का साक्षी बनता है। पिछले 227 सालों से काशी नरेश शाही अंदाज में इस लीला में शामिल होते रहे। पूर्व काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह ने इसकी शुरुआत की थी। 1796 में वह पहली बार इस लीला में शामिल हुए थे। तब से उनकी पांच पीढ़ियां इस परंपरा का निर्वहन करती चली आ रही हैं।

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